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हिन्दी भाषा की उत्पत्ति।


के अन्त में आती हैं उस शब्द का उन्हें मूल अंश न समझना चाहिए। ये पृथक् शब्द हैं और विभक्ति-गत अपेक्षित अर्थ देने के लिए जोड़े जाते हैं। अतएव अन्तःशाखा की भाषाओं को व्यवच्छेदक भाषायें कहना चाहिए। बहिःशाखा की भाषायें जिस समय पुरानी संस्कृत के रूप में थीं, संयोगात्मक थीं। 'का' 'को' 'सो' आदि से जो अर्थ निकलता है उसके सूचक शब्द उनमें अलग न जोड़े जाते थे। इसके बाद उन्हें व्यवच्छेदक रूप प्राप्त हुआ। सिन्धी और काश्मीरी भाषायें अब तक कुछ-कुछ इसी रूप में हैं। कुछ काल बाद फिर ये भाषायें संयोगात्मक हो गई और व्यवच्छेदक अवस्था में जो विभक्तियाँ अलग हो गई थीं वे इनके मूलरूप में मिल गई। बँगला में षष्ठी विभक्ति का चिह्न 'एर' इसका अच्छा उदाहरण है।

क्रियाओं में भी भेद है। बहिःशाखा की भाषायें पुरानी संस्कृत की किसी ऐसी एक या अधिक भाषाओं से निकली हैं जिनकी भूतकालिक (यथार्थ में भाववाच्य) क्रियाओं से सर्वनामात्मक कर्ता के अर्थ का भी बोध होता था--अर्थात् क्रिया और कर्ता एक ही में मिले होते थे। यह विशेषता बहिः-शाखा की भाषाओं में भी पाई जाती है। उदाहरण के लिए बँगला का "मारिलाम" देखिए। इसका अर्थ है "मैंने मारा"। पर अन्तःशाखा की भाषायें किसी ऐसी एक या अधिक भाषाओं से निकली हैं जिसमें इस तरह के क्रियापद नहीं प्रयुक्त होते थे। उदाहरण के लिए हिन्दी का "मारा" लीजिए।