आर्य्य रहते थे। धीरे-धीरे भीतर शाखा के आर्य्यों का प्रभुत्व
वहाँ बढ़ा और उन्हीं की भाषा वहाँ की प्रधान भाषा हो गई।
प्रयाग और बनारस के बीच, अर्थात् अवध, बघेलखण्ड और
छत्तीसगढ़, की भाषा पूर्वी हिन्दी है। इस भाषा में भीतरी और
बाहरी दोनों शाखाओं के शब्द हैं। यह दोनों के योग से बनी
है अतएव इसे हम मध्यवर्ती शाखा कहते हैं। भीतरी शाखा
की दक्षिणी सीमा नर्म्मदा का दक्षिणी तट है। इसमें किसी
सन्देह, विवाद या विसंवाद के लिए जगह नहीं। यह सीमा
निर्विवाद है। पश्चिम में यह शाखा राजस्थानी भाषा का रूप
प्राप्त करके सिन्धी में और पंजाबी का रूप प्राप्त करके लहँडा में
मिल जाती है। लहँडा वह बोली है जो पंजाब के पश्चिम मुलतान और भावलपुर आदि में बोली जाती है। गुजरात में भी
इम भीतरी शाखा का प्राधान्य है। वहाँ उसने पूर्व-प्रचलित
बाहरी शाखा की भाषा के अधिकार को छीन लिया है।
जिन भाषाओं का ज़िक्र ऊपर किया गया उन्हें छोड़ कर शेष जितनी संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषायें हैं सब बाहरी शाखा के अन्तर्गत हैं।
संस्कृत से (याद रखिए, पुरानी संस्कृत से मतलब है) उत्पन्न हुई जितनी आर्य्य-भाषायें हैं वे नीचे लिखे अनुसार शाखाओं, उपशाखाओं और भाषाओं में विभाजित की जा सकती हैं :-