प्रान्त में भारत की बहुत सी चीज़ें न होती थीं। इस
भारत में आकर आर्य्यों ने उन चीज़ों के नाम द्राविड़ और मुंडा
जाति के पूर्वजों से सीखे और उन्हेँ अपनी भाषा में मिला लिया।
इसके सिवा कोई-कोई बातें ऐसी भी हैं जिन्हें आर्य्य लोग कई
तरह से कह सकते थे। इस दशा में उनके कहने का जो
तरीक़ा द्राविड़ लोगों के कहने के तरीक़े से अधिक मिलता था
उसी को वे अधिक पसन्द करते थे। पुरानी संस्कृत का एक
शब्द है 'कृते,' जिसका अर्थ है 'लिए'। होते-होते इसका
रूपान्तर 'कहुँ' हुआ। वर्तमान 'को' इसी का अपभ्रंश है।
इसका कारण यह है कि द्राविड़ भाषा में एक विभक्ति थी 'कु'।
वह सम्प्रदान कारक के लिए थी और अब तक है। उसे देखकर पुराने आर्य्यों ने सम्प्रदान कारक के और और चिह्नों
को छोड़कर 'कृते' के ही अपभ्रंश को पसन्द किया। जिन
लोगों का सम्पर्क द्राविड़ों के पूर्वजों से अधिक था उन्हीं पर
उनकी भाषा का अधिक असर हुआ, औरों पर कम या बिलकुल
ही नहीं। यही कारण है कि आर्य्य-भाषाओं की कितनी
ही शाखाओं में द्राविड़ भाषा के प्रभाव का बहुत ही कम
असर देखा जाता है। किसी-किसी भाषा में तो बिलकुल
ही नहीं है।
भाषा-विकास के नियमों के वशीभूत होकर कठोर वर्ण कोमल हो जाया करते हैं और बाद में बिलकुल ही लोप हो जाते हैं। प्राचीन संस्कृत के "चलति" (जाता है, चलता है) शब्द को देखिए। वह पहले तो "चलति" हुआ, फिर "चलइ"।