"त" बिलकुल ही जाता रहा। भाषा-शास्त्र के एक व्यापक
नियमानुसार यह परिवर्तन हुआ। पर कहीं-कहीं इस नियम
के अपवाद पाये जाते हैं। उदाहरण के लिए संस्कृत "शोक"
शब्द को लीजिए। उसे “सोअ' होना चाहिए था। पर
"सोअ" न होकर "सोग" हो गया। अर्थात् 'क' व्यञ्जन
का रूपान्तर 'ग' बना रहा। यह इसलिए हुआ क्योंकि द्राविड़
भाषा में इस तरह के व्यञ्जनों का बहुत प्राचुर्य्य है। अतएव
सिद्ध है कि संस्कृतोत्पन्न आर्य्य-भाषाओं पर द्राविड़ भाषाओं का
असर ज़रूर पड़ा। और उस असर के चिह्न हिन्दी में भी
पाये जाते हैं।
मुसल्मानों के सम्पर्क से फ़ारसी के अनेक शब्द हिन्दी में
मिल गये हैं। साथ ही इसके कितने ही शब्द अरबी के और
थोड़े से तुर्की के शब्द भी आ मिले हैं। पर ये अरबी और
तुर्की के शब्द फ़ारसी से होकर आये हैं। अर्थात् फ़ारसी
बोलनेवालों ने जिन अरबी और तुर्की शब्दों को अपनी भाषा में
ले लिया था वही शब्द मुसल्मानों के संयोग से हिन्दुस्तान में
प्रचलित हुए हैं। ख़ास अरबी और तुर्की बोलनेवालों के संयोग
से हिन्दी में नहीं आये। यद्यपि अरबी, तुर्की और फ़ारसी
के बहुत से शब्द हिन्दी में मिल गये हैं, तथापि उनके कारण
हिन्दी के व्याकरण में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इन विदेशी
भाषाओं के शब्दों ने हिन्दी की शब्द-संख्या ज़रूर बढ़ा दी है,
पर व्याकरण पर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ा। हाँ, इन