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हिन्दी भाषा की उत्पत्ति।

जाँच-पड़ताल से यह मत भ्रामक निकला। हिन्दुस्तानी और कुछ नहीं, सिर्फ़ ऊपरी दोआब की स्वदेशी भाषा है। वह देहली की बाज़ारू बोली हरगिज़ नहीं। हाँ उसके स्वाभाविक रूप पर साहित्य-परिमार्जन का जिलो ज़रूर चढ़ाया गया है और कुछ गँवारू मुहावरे उससे ज़रूर निकाल डाले गये हैं। बस उसके स्वाभाविक रूप में इतनी ही अस्वाभाविकता आई है। इस भाषा का "हिन्दुस्तानी" नाम हम लोगों का रक्खा हुआ नहीं है। यह साहब लोगों की कृपा का फल है। हम लोग तो इसे हिन्दी ही कहते हैं। देहली के बाज़ार में तुर्क, अफ़गान और फ़ारस-वालों का हिन्दुओं से सम्पर्क होने के पहले भी यह भाषा प्रचलित थी। पर उसका उर्दू नाम उसी समय से हुआ। देहली में मुसल्मानों के संयोग से हिन्दी भाषा का विकास ज़रूर बढ़ा। विकास ही नहीं, इसके प्रचार में भी वृद्धि हुई। इस देश में जहाँ-जहाँ मुग़ल बादशाहों के अधिकारी गये, वहाँ-वहाँ अपने साथ वे इस भाषा को भी लेते गये। अब इस समय इस भाषा का प्रचार इतना बढ़ गया है कि कोई प्रान्त, कोई सूबा, कोई शहर ऐसा नहीं जहाँ इसके बोलनेवाले न हों। बंगाली, मदरासी, गुजराती, महाराष्ट्र, नेपाली आदि लोगों की बोलियाँ जुदा-जुदा हैं। पर वे यदि हिन्दी बोल नहीं सकते तो प्रायः समझ ज़रूर सकते हैं। उनमें से अधिकांश तो ऐसे हैं जो बोल भी सकते हैं। भिन्न-भिन्न भाषायें बोलनेवाले जब एक दूसरे से मिलते हैं तब वे अपने विचार हिन्दी ही में प्रकट करते हैं। उस समय और कोई भाषा काम नहीं देती। इससे