पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५२४

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जैनधर्म ४७३ कोनमा है और कुमार्ग कोनसा है। वस्तुके यथार्थ । इम सम्यग्दशनके बिना हुए सम्यग्ज्ञान और मम्यक- स्वरूपमे वे सर्वथा अपरिचित हैं। इस प्रकारका विचार चारित नहीं होता । मम्यग्दर्शनके बिना जो जान करके जिम प्रकारसे बने उम प्रकार से अजानान्धको दूर होता है, वह मिष्याज्ञान कहलाता है और व्रताटि करनेके अभिमायम जिनमार्ग का माहामा वा प्रभाव | कुचारित्र कहलाते हैं। जैनशास्त्रों में मभ्यग्दर्शनको ममस्त मतावलम्बियों में प्रगट कर देना ; इसको प्रभाव बहुत प्रश'मा की गई है। किन्तु बाहुल्य भयमे हम यहाँ नाङ्ग कहते हैं। इसके पालन में भी उपर्यंत विष्णुकुमार | उमेव नहीं करते। मुनिने प्रसिद्धि लाभ की है। (२) सम्यग्नान- जो जान वस्त के स्वरूप को न्य नता. जैमे अक्षरहीन मन्त्र विषको वेदनाको नष्ट नहीं | रहित, अधिकतारहित और विपरीतता रहित जैमाका करता, उसी प्रकार अङ्गरहित सम्यग्दर्शन भो संमारके | तैमा मन्द हरहित जानता है, उमको सम्यग्ज्ञान कहते कम जनित दुःखोंको दूर नहीं कर सकता । इमलिए हैं। मम्यग्ज्ञानयुक्त व्यक्ति प्रथमानुयोग, करणानुयोग, अङ्गयुक्त सम्यग्दर्शन ही प्रशस्त है। चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार प्रकारके श्रुतको जैनशास्त्रों में माग्दर्श नयुक्त व्यक्तिको उपर्युक्त आठ भली भांति जानता है । यह सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होता अङ्गीका पालन करते हुए निम्नलिखित तीन मूढ़ता है. मम्यग्दर्शनपूर्वक जैन श्रुतका ज्ञान होना हो मम्यग्ज्ञान और पाठ मदोंका भी सर्वथा परित्याग कर देनेका । है। इसी भेद प्रभेद आदि पहले श्रुतके वर्णनमें कह विधान है। तीन मूढ़ता-१ नोक-मूढ़ता-धर्म म्मझ चुके हैं। और भो आगे चल कर "प्रमाण और नय" कर गङ्गा, यमुना आदि नदियों में तथा समुद्र में स्नान | शो कमें कुछ कहा जायगा। करना, बाल और पत्थरों का ढेर करना, पर्व तमे गिरना (३) सम्यक्चारित्र-सम्यग्दान और सम्यग्ज्ञान- और अग्निमें जलना (जैसे पतिके पीछे सती होना | पूर्वक जो हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह आदि ), यह मध लोकमूढ़ता है (१)। २ देवमूढ़ता- इन पांचों पापप्रणालियोंमे विरता होना, सम्यक चारित्र पाशावान हो कर थरकी इच्छास रागपिरूप मलसे कहलाता है। इसके साधारणतः टो भेट है, १ मकल- मलिन देवताओं को जो उपासना की जाती है, उसे चारित्र और २ विकलचारित्र। समस्त प्रकारके परि- देव-मूढ़ता कहते हैं। ३ पाखगिड-मूढ़ता-परिग्रह, । यहाँमे विरक्त मुनियोंके चारिखको सकलचारित और . प्रारम्भ योर हिमायुक्त ममारचक्र में भ्रमण करनेवाले | ग्टह आदि परिग्रह-महित रहस्यों के अणुमताटि पालन पाखोमा वा तपस्वियों का प्रादर-सत्कार और करनेको विकलचारित्र कहते हैं। (जैनाचार देखो) जैनन्याय भति पूजादि करना, पासण्ड़ि मूदता वा गुरु-मूढ़ता कहलाती है। प्रमाण, नय और निक्षेप ।-जिमसे पदार्थ के सर्वटेश __ आठ मद-१ विद्याका मद, २ प्रतिष्ठाका मद, ३ | (मर्वाश )का ज्ञान हो अथवा जो ज्ञान सच्चा हो वह कुलका मद, ४ जातिका मद, ५ शक्तिका मद, ६ सम्पत्ति प्रमाण कहलाता है। जिससे पदार्थ के एकदेश (एकाग). का मद, ७ नपका मद और शरीरका मद । सम्यग्दष्टि का ज्ञान हो, उसे नय कहते हैं और युक्तिमे मयुक्त एन पाठ मदीका परित्याग करता है। इसके सिवा मार्ग के होते हुए कार्य के वासे नाम, स्थापना, द्रव्य और जो शुइ सम्यग्दष्टि होते हैं, वे भय, प्राणा, प्रीति और भावमें पदार्थ के स्थापनको निक्षेप कहते हैं। इनमे लोभसे कुदेव, कुशास्त्र और फुलिनियों (पाखण्डौ साधुयों) । जीवादि पदार्थोका ज्ञान होता है । अब यथाक्रममे को प्रथाम और विनय भी नहीं करते हैं (२। इनका वर्णन किया जाता है। (१) "सापगासागरस्मानमुच्यय: सिकताश्मनाम् । 1. पदार्थीका निर्णय एवं उनकी परीक्षा प्रमाया धारा गिरिपातीग्निपातश्च लोक निगद्यते ॥ २२ ॥"रा०) को जाती है। जैन सिखातानुसार प्रमाणको व्यवस्या इम (३) "भयाशास्नेहलोमाय देवागमलिंगिनाम् । प्रकार है- .

प्रगाम विनयं चैव न कुर्यु शुटियः ॥ ३०॥ (२० प्रा०) 'सम्यग्नानं प्रमाण' यथार्थ भानका नाम ही प्रमाए

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