पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५२८

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जैनधर्म geo विश्वास ममझना चाहिए ।, दूमरे प्रचलित शब्दमें ऐम | वृक्षत्व व्यापक है, वह अधिक देश में रहता है, पामत्व अंदाजको कयास भी कह देते हैं वह प्रमाण नहीं हो । व्याप्य है वह न्य न देशमें रहता है, इन दोनों में महभाव मता, निशो विश्वास अठा भी हो मता है और सक्षा नियम है ओर रम तथा रूपका सहचर भाव है उनका भो हो मकता है। परन्तु वह सच्चा ही हो ऐमा कोई भी सहभाव नियम अविनाभाव है। नियम नहीं है, यहां पर जिम अनुमानका विवेचन किया तथा जो आगे पीछे होनेवाले पदार्थ हैं उनमें तथा • जाता है वह शास्त्रीय है, प्रमाणभूत है, नियम वस्तु जिममें परम्पर कार्यकारणभाव है उनमें क्रमभाब का मच्चा बोध कराता है उसमें कभी मदेह या विपरीत नियम अविनाभाव है। जैसे दिन पहले रात्रि पीछे पन नहीं हो सकता। होती है अयवा दिन पीछे रात्रि पहले होती है, इनमें जनसिद्धान्तने जो अनुमानका लक्षगा किया है वह क्रममाव नियम अविनाभाव है तथा धूम कार्य है अग्नि विना वस्तुको यथार्थताका बोध हुए घटित ही नहीं। कारण है, कारण पहने होता है पोछे कार्य होता है। होता। वह लचण इस प्रकार है- इसलिये इनमें भो क्रमभाव नियम पविनाभावो है। "साध्या विनाभाविनो निश्चितसाधन त् साध्यविज्ञानमनु. ___ इस कथनका तात्पर्य यह न समझना चाहिये कि जब मानम्". अर्थात् जो माधन हेतु माध्यका अविनाभावो कि व्याप्य प्यापक, सहचर पदामि क्रमसे होनेवाले है. साध्यको छोड़ कर जो रह नहीं सता, ऐमे माधनमे कार्य कारणमें और पूर्व उत्तर होनेवाले पदार्थो में पर माध्यका नियय कर म्नेना, इमोका नाम अनुमानप्रमाण स्पर नियममे अविनाभाव है, तब व्याप्य हेतुसे व्यापक- है। दृष्टान्त के लिये धूमको ही ले लीजिए-धम हेतुमे की, कार्य हेतुमे कारणको पूर्व होनेवाले हेतमे उत्तर अग्निरूप माध्यका निश्चय हो जाना मी निश्चयात्मक पदार्थ की मत्ताका नियमसे निद्ययात्मक यथार्थ बोध हो जानका नाम अनुमान है। यहां पर विचारणीय एवं जाता है. क्योंकि वे सभी माधन ऐमे हैं, जो बिना माध्य- पद्धत बात यह है कि जिस धम हेतुमे अग्निका निश्य के कभी उत्पद्य ही नहीं हो सतो, इमलिये नियमसे किया जाता है वह हेतु अग्निका निथित अविनामावो माध्य सिद्धि कराते हैं, हम प्रकार निथित अविनाभावी है, अग्निको छोड़ कर ध म अन्यत्र रह नहीं सता, ऐसे हेतु ही जैनमिद्धान्तमें सहेतु कहा जाता है। और इस धमकी देख कर जो कोई अग्निका निश्चय करेगा वह प्रकारके सतु दारा सिद्ध किया हुआ साध्य सदनुमान भवश्य यथार्थ होगा, उसमें विपर्ययता, संदिग्धता, एवं कहा जाता है। अनिथितता कभी पा नहीं सतो, कारण जिम अविना इस साध्य के बिना नहीं होनेवाले एवं साध्यक भावी हेतुमे साध्यका नियय होता है वह माध्यको झोड़ | सद्भाव ही होनेवाले अविनाभावी हेतुके बिना जितने कर कभी रह नहीं सक्षा इमलिये नियम माध्यका | मो हेतु प्रयोग हैं वे चाहे पक्ष मपक्षमें रहनेवाले क्यों यथार्थ भान कराता है। न हों और विपक्षमे व्यावृत्ति रखनेवाले पी न हो . यह जैनमतानुमारी हेतु माध्यके उपस्थित रहने पर सभी हेवाभास है। हो होगा यदि साध्य नहीं होगा तो कभी हो नहीं सका। यद्यपि नैयायिक वैशेषिक एवं बौद आदि दार्ग- ऐसे हतको देख कर साध्यका निश्चय अवश्यम्भावी है। निक उमो केतुको मदे कहते है जो पक्ष सपक्ष वृत्ति इसमें कभी कोई दूषण नहीं था सत्ता। विपक्ष व्याधति रूप होता है, परन्तु ऐसा वितयात्मक हतका अविनाभाव दो प्रकार होता है, एक सक्ष हेतु भी ठीक माध्य माधक नहीं होनेमे मत कहलाने . भावनियम दूसरा क्रमभावनियमरूप, जहां दो पदार्थों में योग्य नहीं है। देखिये-किसी मैव नामक पुरुषको व्याप्य व्यापक भाव होता है, . तथा जहां सहचर भाव | गर्भिणी स्त्रीको देख कर चैव नामक पुरुप यदि यह होता है यहां महभावनियम भविनाभावी होता है। अनुमान करें कि "गर्भस्यो बाल श्यामो भवितु मईति- वृक्षत्व और पामत्व यहाँ दोनोंमें व्याप्यव्यापक भाव है, . मैत्रतनयत्वात् परिद मंत्रतनयबत् । अर्थात् गमें Tol. VIII.120