पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५३८

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जैनधर्म . ४८० होनेसे उसका विना आयुः पूर्ण हुए नाश नहीं होता। युक्त जम्ब होप है। इम जम्यू होपको खाईको भौति • और इसी लिए इतने कष्ट, . होते रहने पर भी उनकी घेरे हुए लवणसमुद्र है जिसकी चौड़ाई सर्वत्र दो लाख अकालमृत्यु नहीं होती। कोई किसोको कोल्हमें पर | योजनकी है। इम लवणममुद्रको धेरै हुए गोलाकार रहा है, तो कोई किसीको गरम लोहेमे चुपटा रहा है। (चूड़ीकी भांति ) धातुकोखण्डहीप है जिसकी चौड़ाई और कोई किसीको प्रज्वलित अग्निमें डान रहा है। मर्वत्र ४ लाख योजन है। धातुकोखण्डको परे हुए आठ इस प्रकार नरकोंमें घोर टुःख हैं। नारको जोव मर लाग्य योजन चोड़ा कालोदधि समुद्र है और कालोदधि कर नरक और देवगतिमें जन्मग्रहण नहीं करते, किन्तु समुद्रको चारो तरफसे घेरे हुए मोलह लाख योजन चोड़ा मनुष्य और तिर्यश्च गतिमें हो उत्पन्न होते हैं। इसो पुश्करहोप है। इस प्रकारले क्रमशः दूने दूने विस्तारयुक्त प्रकार मनुष्य और तियञ्च हो मर कर नरकमें उत्पन्न परस्पर एक दूसरे के घेरे हुए असख्यात होप और समुद्र होते हैं। देवगतिमें मरण करके कोई भी जोव नरकमें हैं। अन्त में स्वयम्भू रमण ममुद्र ओर उसके चारों कोनोंमें उत्पन्न नहीं होता। असजी पञ्चेन्द्रिय जीव मर कर | पृथिवी (भूमि ) है। पुष्कर होपकै बीचमें (चूड़ीकी पहले नरक पर्यन्त ही जम्न ले सकता है ; प्रागे नहीं। भांति ) एक पर्वत है जिसका नाम है मनुपोत्तरपर्वत । इसी प्रकार सरीसृप जातिक जीव दूसरे नरक तक, पक्षी इस पर्वतके रहनेमे पुष्करदीप दो भागोंमें विभता है। तीसरे नरक तक, सर्प चौथे नरक तक, सिंह पांच जम्ब होप, धातुकोहीप भोर पुष्करदीपका भीतरी भाग, नरक तक, स्त्री छठे नरक तक और कम भूमिझे मनुष्य ये ढाई दीप कहलाते हैं और इसीके भीतर भीतर तथा मत्सा सातवें नर तक जन्मग्रहण कर सकते हैं। मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। मनुयोत्तरपर्वतके बाद यदि कोई जोव निरन्तर नरकम उत्पन होता रहे। तो मनमोका अस्तित्व नहीं है. वहां सिर्फ तियोंका हो पहले नरकमें ८ बार तक, दूसरेमें ७ बार, तोमरे में वास है। जलचर जीव लवणोदधि, कालोदधि और बार, चौथैमें ५ बार, पांचवेंमें ४ बार. छठेमें ३ घार और अन्तके स्वयम्भू रमण समुद्रमें ही होते है अन्य समुद्रों में सातवें नरकम २ वार तक जन्म ले सकता है। इससे नहीं। अधिक नहीं। किन्तु जो जीव सातवें नरकसे पाया है उम यो सातवें या किसी अन्य नरकमें जाना ही पड़ता है वा ____ जम्ब होपसे दूनी रचना धातुकोखण्ड और पुष्करा तियंच गतिमें अवती उत्पन्न हो सकता है; देव वा मनुष्य होपमें है। जम्बूदीप (गनमतानुसार ) देखो। मनुष्य योनिमें जन्नग्रहपा नहीं कर सकता। छठे नरकसे निकले | लोकके भीतर अर्थात् ढाई होपमें पन्द्रह वार्म भूमि और हुए जीव मनुष्य हो कर मुनिका चारित्र धारण नहीं। तीस भोगभूमियां हैं। कर सकते ; अर्थात् उनके भाव इतने उज्ज्वल नहीं होते। इस जम्य दीपक भरत और ऐरावतक्षेत्रमें काल-परि. एमी प्रकार पांचवें नरकसे निकले हुए जोव मोक्ष नहीं' वर्तन हुआ करता है। उनतिरूप और अवनतिरूप जा सकरी, चौथेमे निकले हुए तीर्थ हर नहीं हो सकते। इस तरह कालके दो विभाग हैं। उमतिरूप कालको श्ले, २२ और ३२ नरकसे निकल कर जीव देवगतिमें उत्सर्विणी और अवनतिरूप कासको । श्वसविणी जाता है और वहांमे फिर तोर्यदररूपमें जन्मग्रहण कर कहते हैं। किन्तु अन्य क्षेत्रीम कास-परिवर्तन नहो सकता है। नरकसे निकले हुए जीव वलभद्र नारा- होता। बीचके विदेहक्षेत्रमै मदा ४ थे कान रहता यरा और प्रतिनारायण और चक्रवर्ती नहीं हो मकते। है। इमडे बीच में अर्यात् मुमतके आसपास देवकुरु श्रीर २ मध्यलोक-यह लोकके ठीक मध्यस्थलमें है, उत्तरकुर नामक क्षेत्रों में सर्वदा प्रथमकालको रचना इसलिए इसका नाम मध्यलोकपड़ा। · अधोलोकसे रहती है। दूसरे कालके आदिको रचना हरि और रम्यक अपर मध्यलोक है जो एक राजू लम्बा, एक गजू चोड़ा। क्षेत्र में रहती है। तीसरे कालके यादिको रचना हमवत और एक लाख चालीम योजन जचा है। इस मध्य और हरण्यवत क्षेत्रमें अवस्थित है। अन्तके प्राधे स्वयम्भ। लोकके ठीक बीच में गोलाकार एक लाख योजन व्यास- रमणदीप और समस्त स्वयम्भ रमण समुद्रमें तथा उसके