पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१२०

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मुर्शिदाबाद सोनहीं । मनुष्यचरित्रमें दोष रहना स्वाभाविक है। पर हा वागड़ीको जमोन पूरव पङ्गालकी जैसी चारों ओरसे साधारण नवाव लोग जैसे चरित्नवान् थे, उनसे हजार | गंगा, भागीरथो, और जलंगीसे घिरी हुई है। बोच वीचमें गुणा ये वढ़े चढ़े थे। जो व्यभिचारके कारण अपने ! गंगाको शाखा और उपशाखा वहती हैं। यहांको जमीन एकमात्र पुत्रका शिरश्छेद कर सकते इतिहास व टसकी । प्रायः केवाल है । हर साल बाढ़से डूब जाती है । जिस तरह उन्हें सर्वदा अपने हृदयमें धारण कर रखेगा। कारण यहांके लोगोंको अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं। जो मुसलमानधर्मके वे पक्के अनुरागी थे, कसर इतनी हो हो, यह जमीन सवसे बढ़ कर उपजाऊ है। यहां आशु थी, कि वे ब्राह्मण-सन्तान थे। फिर भी उनके जैसे उस | और सामन दोनों प्रकारके धान लगते हैं। समयके मुसलमान समाजमें बुद्धिजीवी कार्य कुशल, बहरमपुरमें सदर अदालत तो है लेकिन बंगालकी न्यायपरायण, सुदक्ष और संयत चरित्रवाले शासनकर्ता- | नवावी राजधानी मुर्शिदावाद शहर हीमें बहुत लोग - का विलकुल अभाव था। इन्हों सब कारणोंसे मरनेके ! रहते हैं। गंगाके किनारे ही इस जिलेको वड़ो बड़ी वाद भी वे पीरको तरह पूजित हुए थे। हाट हैं। उनमें भगवान्गोला या अलातलि और मुर्शिदावाद-(पुराना नाम मकसुदावाद या मुक्सुदा, धुलियान ही सबसे बड़ी है। गंगाकी शाखायें भागी- वाद) बङ्गालके प्रेसीडेन्सी डिविजनका एक जिला। रथी, भैरव, सियालमारी और जलंगी इस जिलेमें वहती यह अक्षा० २३४३ से २४ ५२ उत्तर और ८७° ४६ से | है तथा इन सभोंके किनारे भी छोटी छोटो अनेक हाट ८८.४४ पूरवके वीच फैला हुआ है। इसका रकवा हैं। सूती थानाके पाससे भागीरथी अनेक शाखा २१४३ वर्गमील है। यह आकारमें समत्रिभुज त्रिकोणके । पाखामोमिनार कर प्रशाखाओंको विस्तार करतो हुई अधिकांश पुराने और जैसा है। इसकी उत्तरी और पूर्वी सीमा पर पद्मानदी नये शहरों के पास हो कर वहती है । वर्ष भर छ: महीनों- अर्थात् गङ्गाको मुख्यधारा वहती है जो इसे मालदह और में इन नदियों द्वारा नाविक-व्यापार खूब चलता है । इसके राजशाहीसे अलग करती है, दक्षिण पूर्वी सीमा पर पूरवी या वायें किनारे पर जंगीपुर, जियागा, मुर्शिदावाद, जलंगी वहती है और इसे नदियासे अलग करती है। इस कासिमवाजार और वहरमपुर शहर तथा दाहिने किनारे के दक्षिणमें बर्द्धमान तथा पश्चिममें वीरभूम और संथाल धदरोहाट और रंगामाटी ( कर्णसुवणका ध्वंसावशेष) परगना है। | बसे हुए हैं। पश्चिमकी ओरसे शिंगा आ कर गंगामें इसके बीचो बीच भागीरथी बहती है जिससे दो हिस्से हो जाते हैं। पश्चिमी हिस्सा राढ़ कहलाता है मिली है। पागला, वांसलोंइ, द्वारका, ब्राह्मणी, और पूर्वी हिस्सा वागड़ी । भूतत्त्व और कृषिके पिचारसे मयूराक्षी और कुइया अनेक स्थानों में वहती हुई अन्तमें ये दोनों खण्ड सर्वथा भिन्न हैं। राढ़की जमोन कड़ी भागीरथामें आ गिरी हैं। इस जिलेमें प्रथम २५ मील और पथरीली है। इस तरहकी जमीन छोटा- छोड़ कर समूचे वाये किनारे पर ऊंचा वांध दिया नागपुरसे वीरभूम जिले तक चली गई है। यह जमीन गया है। साधारणतः ऊंची नीची है । वीच वीचमें बड़े बड़े राढ़-अञ्चलमें ही खनिज द्रव्योंकी खान है। जगह गडढे हैं और समुद्रके सोते नीचेसे वह गये हैं। कहीं जगह लोहा पाया जाता है। पश्चिम भागमें कंकड़ कही टीला भागीरथीके तट तक फैला हुआ है । राढ़- वहुत है जिससे रास्ता मरम्मत किया जाता है। यहांके को जमीन देखनेमें बहुत कुछ लाल है और उसमें जङ्गलमें रेशमका कीड़ा, मधुमक्खीका छत्ता, नाना प्रकार चूने और लोहेके क्षार ( Oxide of iron ) मिले हुए हैं। औपधि लताएं, मूल और लाह पाये जाते हैं । संथाल मदियोंमें अचानक वाढ़ उमड़ आया करती है लेकिन और धांगड़ लोग पटसन और डूमरके पेड़ों पर लाहके इससे धरती अधिक समय तक डूबो नहीं रहती। इस कीड़े पालते हैं। लिये गङ्गाके टापुओकी जमीन जैसी यहांकी जमीन उप- इस जिलेके दक्षिण-पश्चिम मयूराक्षी और द्वारका जाऊ नहीं है। यहां केवल आमन धान होता है। नदीके सङ्गम पर १६ वर्गमील फैली हुई 'हेजल' नामकी Vol. xVII. 30