पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१७

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मुद्रा शाम्भवी, पञ्चधारणा अर्थात् पार्थिवी. आम्भसी, आग्ने यो क्षुधा, तृष्णा, आलस्य, रोग, जरा, मृत्यु, अवसाद कुछ वायवी, आकाशी, अश्विनी, पाशिनी, काकी, मातङ्गी, भी नहीं रहता। अग्नि, वायु और जलसे किसी भी और भुजङ्गिनी। (घेरपडस० ३ अ०) तरह शरीरका अनिष्ट नहीं होता, सर्प नहीं काट सकता। उक्त मुद्राओंके लक्षण और फलाफल इस प्रकार हैं। शरीरमें एक अपूण लावण्य प्रकट होता मौर उत्तम समाधि- महामुद्रा-प्रगाढ़ यत्नके साथ वाम गुल्फ द्वारा वायु का अभ्यास होता है। कपाल और बपत्रके संयोगसे मल निपीड़ित करके फिर दक्षिण पद पसार कर हाथोंसे रसना एक अपूर्व रसास्वादन करती है। रसनाका रस पदागुलि धारण तथा कण्ठ संकुचित करके भ्र मोंका प्रथमतः लवण और क्षार, फिर तिक्त और कपाय तथा मध्यस्थल देखना। इस मुद्राके अभ्याससे योगिपुरुष, उसके वाद नवनीत, घृत, क्षीर, दधि, तक, मधु, द्राक्षारस क्षयकास, गुदावत; लोहा, अजीर्ण, ज्वर, यहां तक कि और अमृतके समान हो जाता है। सर्वव्याधियोंसे मुक्त हो जाते हैं। नभोमुद्रा-योगिपुरुप चाहे किसी भी स्थानमें क्यों । विपरीतकरणी-सूर्य नाभिमें और चन्द्रमा तालूमें न हों, उन्हें सव समय अवजिह्व हो कर स्थिरतासे | । अवस्थान करते हैं। सूर्य उक स्थानमें रह कर अमृत प्रतिनियत पवनधारण करना चाहिए । इसीका नाममो. ग्रास करते हैं, इसीलिये मानव मृत्युके पास बनते हैं। मुद्रा है। यह रोगनाशक है। अतएव सूर्यको नीवेसे ऊपर और चन्द्रको ऊंचेसे नोचे. उड़ीयानवन्ध--उदरके पश्चिम और नाभिके अदुवं । * है। को लाना चाहिये । इसमें दोनों हाथोंको समाहित करके अपना सिर भूमि पर रख कर ऊर्ध्वपाद हो फर भागको उत्तान करके वृहत् विहङ्गमके समान अविश्रान्त । उडीयान करना। इस मुद्राके अभ्याससे सत्यको जीता। अवस्थान किया जाता है। इसका नाम विपरीतकरी जा सकता है और सर्व मुद्राओंमें श्रेष्ठ होनेके कारण इससे मुद्रा है। यह सर्व तन्त्रोंमें गुप्त रखी गई है। प्रतिदिन इसका अभ्यास करनेसे योगिपुरुष जरा और मृत्युसे सहज ही मुकि प्राप्त होती है। छुटकारा पा कर सर्वसिद्धि लाम करते हैं तथा प्रलयकाल जलन्धरवन्ध-कण्ठका संकोचन करके क्रमसे ठोड़ी में भी उन्हें किसी प्रकारका अवसाद नहीं होता। . को हृदयसे लगाना। यह मुद्रा भी योगियोंके लिए | मृत्युजयी है और छः मास यथायथ भावसे अभ्यास ..योनि-सिद्धासन अवलम्बन कर मगुष्ठ, तर्जनी, करनेसे सिद्ध होती है। मध्यमा और अनामिका आदि द्वारा कर्ण, चक्षुनासा मूलबन्ध-दाहने पैरसे वाये पैरके गुल्फको यनसे | और मुख आच्छादन करके काकीमुदासे प्राण आकर्षण दवा कर वायें पैरके गुल्फके पायुमूलका निरोध न करना पूर्वक अपानमें योजना करनी चाहिये। क्रमशः और फिर धीरे धीरे पार्णिदेशको चालन और योनिदेश पट्चक्रका ध्यान करके फिर 'ई हंस' इस मन्त्रसे निद्रिता को आकुञ्चन करना। इसके प्रसादसे जरामरणको जीता | भुजङ्गिनीकी चेतना सम्पादन कर जीव सहित शक्तिको और सर्गवाच्छित प्राप्त किया जा सकता है। जगा कर स्वयं शक्तिमय हो परम शिवके साथ मिल खेचरी-जिहाके नीचेकी नाड़ी छेद कर सर्वदा | जाओ। पश्चात् शिवशक्तिकी नानारूप आनन्दचिन्ता रसना चलाना और उसे नवनीत द्वारा दोहन करके लौह-/ और 'अहं ब्रह्म ऐसी भावना करनी चाहिये। यह मुद्रा यन्त्रको सहायतासे खींचो। प्रतिदिन ऐसा अभ्यास | अत्यन्त गोपनीय और देवोंके लिये भी दुर्लभ है। फरनेसे जिहा लम्बी होती है। जिहा लम्यो होने पर योनिमुद्राके अभ्याससे ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, सुरापान क्रमशः उसे तालूके मध्य प्रवेश कराना चाहिये । जब और गुरुतल्प गमन जन्य पापसे मुक्ति मिल जाती है । जिला विपरीत भावसे गमन करके कपाल-कुहरमें प्रविष्ट | बहुत क्या कहें'. सब प्रकारके उत्कट पाप और उपपाए हो जाय, तब दोनों भौहोंके वीच स्थिर दृष्टि रख कर अव- | इससे नष्ट हो जाते हैं। इसलिए मुमुक्षु व्यक्तिके लिये स्थान करना चाहिये। इस मुद्राके अभ्याससे मूर्छा, | यह बहुत ही लाभकर है। .