पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२१६

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. भूववि लिये पथ्य यदल देना उचित है, नहीं तो क्षुधामान्य | भी एक प्रकारका बहुमूत्ररोग है। इसमें मूत्रका आपे- हो सकता है। यदि पथ्य खाने में रुचि न हो, तो थोड़ी क्षिक गुरुत्व कम होता है तथा शक्करका भाग नहीं रोटी दे सकते हैं। प्यास रोकनेके लिये वर्फ, एसिड रहता। फेोस्करिक डिल, क्रीम आय टटार सोल्युशन, भित्रि वा ____ इसमें स्नायुमण्डलके क्रियाव्यतिक्रमके कारण मूत्र- कालेंस-चाड आदि धातव जलका सेवन कराना उचित यन्त्रस्थ धमनियोंकी मांसपेशी शिथिल और स्फोत है। जलपान निषेध करनेसे विपरीत फल होनेकी होती है जिससे अधिक परिमाणमें पेशाव निकलता है। सम्भावना है। रोगीको हमेशा गरम कपड़े से ढके रहना पश्वादिके ४थ कोटर ( Ventricle) के तलदेश, चाहिये जिससे ठंड लगने न पावे। सामुद्रिक जलवायु शरीरके भीतर के बड़े सप्लानचिक स्नायु ( Splan- इस रोगमें विशेष उपकारी है। chnic , छातीके स्नैहिक स्नायु अथवा भेगस स्नायु- अफोम इस रोगकी महौषध है। २४ घटेके भीतर को सूचिकावेध द्वारा उत्तेजित करनेसे कृत्रिमरूपमें यह १ से १० मेन तक अफीम तथा १ न तक कोडोया ध्याधि उत्पन्न हो सकती है। मेरुददण्ड वा मस्तकके ऊपर आघात, दारुण मन- का व्यवहार किया जा सकता है। अन्यान्य ओषधोंमें स्ताप, ठंड लगना, उत्तप्त शरीरमें शीतलजलपान, अति- वाइकार्वनेर आव सोडा वा पोटाश, पेपसिन, आसैनिक, रिक्त परिश्रम वा अत्यधिक सुरापान आदि उत्तेजनासे पोटाश ब्रोमाइड वा आइवाइड, कोनायम, कनाविस तथा हिष्टिरिया रोग अथवा वंशपरम्परा रोग रहनेसे हठात् इण्डिका, लाकटिक, एसिड वा लाकटेट आव सोडा | वचएन या जवानीमें यह रोग आक्रमण कर देता है । इस कुनाइन, आर्गट, भेलेरियन, क्रियाजोर, पार्माङ्गनेट आव । समय मस्तिष्कमें अर्बुद, चतुर्थ कोटरके तलदेशकी आव पोटाश, लाइकर फेरी डाइएलिसेटस, पेरक्साइड आव अपकृष्टता, सोलर प्लेकसस, सप्लानचिक स्नायु हाइड्रोजन आदि प्रयोज्य है । उक्त औषधको एनायु- मण्डलकी अवसादक तथा शकरादग्धकारक माना गया अथवा फुस्फुस पाकायिक स्नायु (Pneumo gastric है। रोग पुराना होनेसे काडलिभर आयल और nerves) के ऊपर अर्बुद तथा असाड़ मूत्रपात (Enu- टि-टिल विशेष फलप्रद है। नया होनेसे अक्सिजन rism ) आदि लक्षण दिखाई देते है। इस प्रकार वार वार अधिक परिमाणमें मूवत्याग आघाण, आभ्यन्तरिक कालिक वा साइलिसिक एसिड होनेसे उसे बहुमूत्ररोग जानना चाहिये और उसकी और थाइमलका प्रयोग किया जा सकता है । चिकित्सा जहां तक हो, जल्द करनी चाहिये। उस R कोडाया ... gr. ss. क्रियाजोट ... my समय मूत्रको परीक्षा करनेसे उसका आपेक्षिक गुरुत्व . एका नोक्सभमिका ... gr. ss. १-०८ से १-०५ तक होता है, मूत्र में शक्कर नहीं पाई जाती, एकः जेनसियान ... q. s... किन्तु इस अवस्थाको एजोटुरिया (Mzoturia ) कहते इन सवको ले कर एक गोली बनावे। इस प्रकार हैं। इस समय रोगोको ऐसी प्यास लगती है, कि यदि तीन गोली दिनमें तीन बार खानी चाहिये। रोग जल नहीं मिले तो वह मूत्र पोनेसे भी बाज नहीं आता पुराना होने पर निम्नलिखित औषध दिनमें २ या ३ वार रोगो क्रमशः दुबला पतला होता और हमेशा उदास दे सकते हैं। रहता है । चर्म शुष्क और शिथिल, उदरके ऊद्धच भाग- कोडलिभर आयल-१ ड्राम । में वेदना, मलबद्धता, क्षुधामान्य, मुखके भीतर शुष्कता, टि-टिल १० वुद। शारीरिक दुर्वलता आदि लक्षण दिखाई देते हैं। पीडाकी एकोया (जल) १ औंस। शेपावस्थामें अत्यन्त शोणता और दुर्वलता, आहार में डायविटिज इनसिपिडस, पोलिइयुरिया वा पोली- अनिच्छा, उदरामय और वमनादि लक्षणोंका विकाश लिपसिया ( Polyuria-Polydipsia ) नामक और । होते देखा जाता है। मधुमेहके साथ इस रोगका भ्रम तो Vol. xVIII 84