पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३३६

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१३३ मैथिलश्रोदत्त-मैथुन हो वङ्गालके जैसा यहां कठोर नियमका प्रचार न हो। संस्कृत पर्याय-सुरत, अभिमानित, धषित, सप्रयोग, सका। मैथिल कुलश्रेष्ठगण अकसर पण्डित, पञ्जिकार, अनारत, अब्रह्मचर्याक, उपसृष्ट निभद्र, क्रीड़ारत्न, महा- और घटकको साथ ले कर तिरहुत तथा जहां जहां मैथिल सुख, ध्यचाय, प्राम्यधर्म, रत, निधुवन। इसका गुण ब्राह्मणोंका वास है, वहां जाते और कुलको निर्णय और दोप-धातुक्षयकारक, रति और सन्तानदातृत्व । करते हैं। इस प्रकार सामाजिक सम्मिलनसे कुलका | अधिक मैथुन करनेवालेको श्वास, खांसी और ज्वर तथा दोष गुण मालूम हो जाता और वैवाहिक सम्बन्ध निरू- जो मैथुन विलकुल नहीं करता उसे प्रमेह, मेद, प्रन्थि- पित होता है । ये लोग प्रधानतः वंशशुद्धिकी ओर ) रोग और अग्निमान्य होता है। स्त्री-संसर्ग नहीं करने- लक्ष्य रख कर आदान प्रदान करते हैं। वालेकी आयु वढती, वह कभी बूढ़ा नहीं होता तथा ___ इन लोगोंमें 'विकौआ' एक श्रेणी है जिसमें , उसके शरीर, वल, वर्ण और मांसकी वृद्धि होती है। जो अधिक विवाह कर सके वही श्रेष्ठ गिने जाते । पूज्यस्थान, अशुचिस्थान, सेकस्थान, मनुष्यके निकट, हैं। पर आज कल यह प्रथा जाती रही। सौराट, सवेरे, शाम और पर्वके दिन मैथुन नहीं करना चाहिये। रसाढ़, वरहरा आदि स्थानोंमें प्रति वर्ष शुद्धिके । रजस्वला स्त्री, अकासी, मलिन, बन्ध्या, वर्णज्येष्ठा, वयो- अन्तिम मासमें सभा लगती है जिसमे हजारों ब्राह्मण, ज्येष्ठा, व्याधियुक्ता, अङ्गहाना, योनिदोषदुष्टा, सगोत्रा, शास्त्रलोचनार्थ एकत्रित होते और विवाह सम्बन्ध स्थिर गुरुपत्ता, भिक्षको, कपट व्रतधारिणो और वृद्धा इन सब करते हैं। ये लोग कट्टर सनातन धर्मावलम्बी, शिष्टास्त्रियों के साथ सम्भोग करना मना है। करनेसे अधर्म, चारी तथा शास्त्र और वेदविद् हुआ करते हैं। अतएव आयुःक्षय और नाना प्रकारकी व्याधि होतो है। सम्पति भी कितने मैथिल ब्राह्मण 'महामहोपाध्याय' आदि वयस और रूपगुणमे एकसो, कुल और शोलयुक्ता, उपाधियोंसे भूषित देखे जाते हैं। अधिकांश लोग नित्य वाजीकरणपोड़िता (जिसने वाजीकरणोक्त औषधका . संध्योपासनादिके अतिरिक्त शालग्राम और पार्थिव सेवन किया हो), अधिकामा, हृष्टा और अलंकृता स्त्रोके शिवलिङ्ग पूजनके बिना भोजन नहीं करते। ये पञ्च | साथ रातके पहले पहरमें मैथुन करना चाहिये । मैथुन देवोपासक होते हुए भी साधारणतः शक्ति-उपासक के बाद शक्करके साथ दूध पोना, निद्रा वा गौड़िक रस हैं। विशेष विवरण मिथिला शब्दमें देखो। भोजन करना हितकर है। (राजवल्लभ) मैथिलश्रीदत्त-मिथिलादेशवासी एक प्रसिद्ध पण्डित । भावप्रकाशमें मैथुनके विधिनिषेधके बारेमें इस • इन्होंने आचारादर्श, आवसथ्याधनपद्धति, छन्दोगाजिक, प्रकार लिखा है, मनुष्यके शरीरमें मैथुन करनेकी हमेशा . पितृभक्ति या श्राद्धकल्प, व्रतसार, समयप्रदीप आदि इच्छा बनी रहती है। उस इच्छाको रोक कर यदि 'प्रन्थ लिखे थे। कमलाकर, दिवाकर, रघुनन्दन आदिने | मैथुन विलकुल न किया जाय, तो मेहरोग, मेहोवृद्धि और इनका नाम उद्धृत किया है। शरीरमें शिथिलता उत्पन्न होती है। प्रीष्म और शरत्- मैथिलिक (सं० पु०) मिथिलावासो। कालमें बालास्त्री, शीतकालमें तरुणी, वर्षा और वसन्त मैथिलो (सं० स्त्री० ) मैथिलस्तन्नामा राजा तस्यापत्यं | स्त्रो। मिथिलादेशके राजाकी कन्या, सोता। कालमें प्रौढ़ा स्त्रीके साध सम्भोग करना बहुत प्रशस्त मैथिलीशरण-सीतारामतत्त्व प्रकाशके रचयिता। और लाभदायक है। सोलह वर्ष तकको स्त्रीको वाला, मैथिलेय (सपु०) मिथिला-सम्बन्धीय, मिथिलाका । १६ से ३२ को प्रौढ़ा और ३२से जिसकी उमर अधिक मैथुन (सं० क्लो०) मिथुने सम्भवतीति मिथुन-( सम्भूते हो गई है उसे वृद्धा कहते हैं। वृद्धा स्त्रोके साथ पा ४३४१) इति अण, मिथुन-स्वेदमित्यण वा। स्त्रोके मैथुन नहीं करना चाहिये। प्रतिदिन वाला श्रीके साथ पुरुषका समागम, रति-कोड़ा। साथ मैथुन करनेसे वलको वृद्धि, तरुण स्त्रीसे ह्रास "असपिपडा च या मातुरसगात्रा च या पितुः । और प्रौढ़ा-स्त्रीके साथ मैथुन करनेसे शरीर जराप्रस्त सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ।।" होता है। Vol. XVIII 84