पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३७१

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होनेसे कारण उसी प्रकार मानसिक ज्ञान भी नहीं आ “प्रमायाप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावययवतर्कनिर्णय- सकता। मनके साथ आत्माका सम्बन्ध मानसिक वादजल्पवितण्डाहेत्वाभासछलजातिनिग्रहस्थानां तत्त्वज्ञानानिः ज्ञानका कारण है। भिन्न भिन्न मनके साथ भिन्न श्रेयसाधिगमः ॥" (गौतमस० १११) भिन्न आत्माका सम्बन्ध है, इस कारण भिन्न भिन्न ___ इस मतमे प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, व्यक्तिका मानसिके ज्ञान भी विभिन्न समयमें विभिन्न सिद्धान्त, अवयव, तक, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हुआ करता है।। हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान यही सोलह __मानसिक ज्ञान सर्वदा समान भावमें नहीं होता। पदाए हैं । इनका तत्त्वज्ञान होनेसे निम्श्रेयस वा मुक्ति- अतएव वह कादाविक है। यह कार्य अवश्य उसका लाम होता हैं। कारण रहेगा। आत्माके साथ मनका संयोग मानस ____इनमेंसे प्रमेय पदाथका तत्त्वज्ञान अन्य निरपेक्षरूपमें ज्ञानका मुख्य कारण है। यह अन्धय व्यतिरेकसिद्ध वा निश्रेयस हेतु-प्रमाणादि पदाथका तत्त्वज्ञान परस्परा- प्रत्यक्षगम्य है। फिर त्यगिन्द्रियके साथ मनका संयोग सम्बन्धमें आरमनिश्चय सभी अनर्थका मूल है। देहादि- ज्ञानसामान्यका कारण है। अलावा इसके और कोई में आत्मनिश्वय होनेके कारण हो स्वाभवतः देहादिके भी ज्ञान नहीं होता। चक्षुरादि विशेष विशेष इन्द्रिय- अनुकूल विषयमें राग वा उत्कट अभिलाप तथा देहादि- के साथ मनासंयोग चाक्षपादि विशेष विशेष ज्ञानका प्रतिकूल विषयों द्वेष हुआ करता है। राग और कारण है। द्वेषकी दोष कहा है । राग और द्वेष रहनेसे उस विषय- त्वगिन्द्रिय सवदेहव्यापी है, अतएव जिस किसी में प्रवृत्ति अनिवार्य है। जिस विषयमें राग होता है इंद्रियके साथ मनका संयोग क्यों न हो, त्वगिन्द्रियके | उसका संग्रह तथा जिस विषयमें द्वेष होता है उसका साथ मनःसंयोग अपरिहाय है। क्योंकि, त्वगिन्द्रिय परिहार करने के लिये प्रवृत्ति लोगोंकी स्वाभाविक है । देहव्यापी होनेके कारण सभी इंद्रिय प्रदेश त्वगिन्द्रियको | प्रवृत्ति होनेसे हो धर्माधर्मका सञ्चय होगा। किसी विद्यमानता है। अभी यह सावित हुआ, कि मुक्ति प्रवृत्ति द्वारा अर्थात् शास्त्रविहित विषयमें प्रवृत्ति द्वारा अवस्थामें इंद्रियादिके साथ सम्वन्ध अलग होनेसे | धर्मका तथा किसी प्रवृत्ति द्वारा अर्थात् प्रतिषिद्ध विषय- आत्मामें किसी प्रकारका सुख दुःख वा ज्ञान नहीं रहता, | में प्रवृत्तिके द्वारा अधर्मका सञ्चय होता है। धर्माधर्म रह भी नहीं सकता। मिट्टी पत्थर जड़ पदार्थकी तरह सुख दुःखका हेतु है, जन्म वा शरीर-परिग्रहके विना मुक्तिकालमें आत्माभी नुख दुःख तथा ज्ञानादिसे रहित ) सुख दुःश्व नहीं हो सकता। अतएव प्रवृत्तिका कारण हो जाती है। प्रवृत्तिसञ्चित धर्माधर्मके लिये जन्म हुआ करता है। __न्यायदर्शनके अनुसर मुक्तिको इस अवस्थाके प्रति जन्म लेनेसे सुख दुःखका भोग करना ही पड़ेगा। देखा लक्ष्य करके चार्वाकने आस्तिकोंको सम्बोधन करते हुए जाता है, कि मिथ्याज्ञान वा देहादिमें आत्मबुद्धि ही उपहासमें कहा है, कि महामुनिके मतसे मुक्तिकालमें | अनर्थका मूल है। सुख दुःखकी तरह ज्ञान या चेतना तक भी नहीं रहेगो, आत्मा वास्तविक देहादि नहीं है। देहादिसे भिन्न भतएव मुक्तिको अवस्था तथा प्रस्तरादिकी अवस्था है। इस प्रकार तत्त्वज्ञानका यथाथ आत्मज्ञान होनेसे कुछ भी वैलक्षण्य नहीं। ऐसी मुक्तिका विषय जिन्होंने | देह ही आत्मा है, यह मिथ्याज्ञान जाता रहता है। उपदेश दिया है उसका नाम गोतम है। गोतम शब्ह आत्मा अविनाशी है । देहादिकी तरह आत्माका विनाश का अर्थ उन्होंने इस प्रकार लगाया है, गोका अर्थ गोपशु | नहीं हो सकता। आत्मा देहादि नहीं है, देहादिसे और तम प्रत्ययका अथ श्रेठ अर्थात् वे गोपशुश्रेष्ठ है। सम्पूर्ण पृथक् है, ऐसा तत्त्वज्ञान हो जानेसे फिर देहके जो कुछ हो, गोतमके नतमें सोलह पदार्थका तत्त्व- प्रतिकुलाचरणमें समुद्यत व्यक्तिके प्रति उतना द्वेष नहीं' ज्ञान होनेसे ही मुक्ति होती है। हो सकता। अतएव तत्प्रयुक्त अधर्म भी होने नहीं