पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३७२

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मोक्ष 'पाता। जो देहको आत्मा बतलाते हैं, वे देहके अनिष्ट-1 - "बहूनां जन्मनोमन्ते ज्ञानवान मां प्रपद्यते ।" (गीता..) कारीसे जिस प्रकार द्वेष करते हैं, देहके अनुकूल नक लौकिक उपायसे किन्तु अल्पायाससे दुःखका उच्छेद चन्दन सेवनादिके अनिष्टकारीसे द्वेष करने पर भी उस साधन किया जा सकता है। सबै धके उपदेशानु- प्रकार द्वेप नहीं करते। सारसे उत्तम औषधके व्यवहार करनेसे शरीर दुःखका, अतएव तत्त्वज्ञान द्वारा मिथ्याज्ञान दूर होनेसे राग- मनोज्ञ स्नोपानभोजनादिके परिसेवनसे मानस दुःखका, द्वेष दूर होता है। रागहप दूर होनेसे तत्मूलक प्रवृत्ति नीतिशास्त्रकुशलता और निरापद समीचीन स्थानमें अव- तथा तजन्य धर्माधर्म सञ्चय अवगत होता है। पूर्वसञ्चित स्थिति द्वारा आधिभौतिक दुःखका तथा मणिमन्तादि- धर्माधर्म तत्त्वज्ञान द्वारा विनष्ट वा दग्ध हो जाता है। की सहायतासे आधिदैविक दुःखका प्रतिकार सहसा इसलिये वह फिर रहने नहीं पाता या रहनेसे भी फल सम्पन्न हो सकता है। ऐसे सहज उपायसे जव दुःख- अर्थात् सुख दुःख उत्पादनमें समर्थ नहीं होता। धर्मा का प्रतिकार हो सकता है तब कष्टकर शास्त्रोपदिष्ट धर्मके दुर होनेसे उस फलभोगके लिये जन्म नहीं लेना उपायसे लोगोंकी प्रवृत्ति एकान्त असम्भव है। एक पड़ता। जन्म नहीं होनेसे ही दुःखका नाश होता है। कहावत ऐसा है,- इस दुःखका नाश निःश्रेयस वा मुक्ति है। "अक्वे चेन्मधुविन्देत किमर्थ पर्वतं व्रजेत् । .. सांख्यके मतसे अत्यन्त निवृत्ति ही मुक्ति है। "अथ- इटस्यार्यस्य संसिद्धौ को विद्वान यत्नमाचरेत् ॥ विविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्पन्तपुरुषार्थः ।" (सांख्यसू० घरके कोनेमें अगर मधु मिले तो, पहाड़ पर जाने • १२१) त्रिविध दुःखको आत्यन्तिक निवृत्तिका नाम का क्या प्रयोजन.१ अभिलपित विषयको सिद्धि होने परमपुरुषार्थ वा मोक्ष है। पर कौन विद्वान् यत्न करता है। इसका तात्पर्य यह . सांख्याचााँका कहना है, कि जगत्में यदि दुःख न है, कि थोड़े परिश्रमसे यदि कार्य सिद्धि हो, तो कोई भी रहता तथा लोग उसे परित्याग करनेके अभिलाषी न दुष्कर उपाय न करें। होते, तो कोई भी शास्त्रप्रतिपाद्य विषय जाननेकी इच्छा ! यह युक्ति अपाततः रमणीय होने पर भी थोडा मनोनि नहीं करता। प्राणिमात्र ही दुःखका अनुभव करता! वेशको सहायताले चिन्ता कर देखनेसे खुद ही इसकी है तथा स्वभावतः ही प्रतिकूल रूपसे सोचता रहता है। असारता जानी जाती है। देखा गया है, कि यथाविधि ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो दुःखको अपने अनुकुल औषध सेवन, मनोज्ञ स्त्रीपानभोजनादिको उपयोग निरा- रूपसे विवेचना नहीं कर सकता हो। प्रतिकूल विषय | पद स्थानमें अवस्थिति और नीतिशास्त्रका अभ्यास परित्याग करनेकी इच्छा भी लोगोंका स्वाभाविक है। तथा मणिमन्त्रादिका संग्रह करने पर भी आध्यात्मिकादि . जिस दुःखके अप्रतिहत प्रभावमें सभी मनुष्य एकान्त | दुःखका प्रतिकार नहीं किया जा सकता। अतएवं उस जरित तथा अपने उच्छेदसाधनमें नितान्त आग्रहान्वित दुःखनिवृत्तिका उपाय होने पर भी ऐकान्तिक वा अन्य- हैं, शास्त्र उसी दुःख समुच्छेदका उपाय निर्धारण करता भिचारी उपाय नहीं है और भी जाना जा सकता है, है। सुतरां शास्त्रप्रतिपाद्य विषय लोगोंके ज्ञातव्य और कि इन सब उपायोंसे तत्काल दुःखकी निवृत्ति होनेसे • अपेक्षित है। अतएव शास्त्रप्रतिपाद्य विषयमें लोगोंका कालान्तरमें उस तरहके दुःखका पुनराविर्भाव होता है, मनोयोग नितान्त जरूरी है। यह प्रत्यक्षसिद्ध है। सत्य है सही, पर शास्त्रोंपदिष्ट उपायसे दुःखका विवेकज्ञान ही केवल दुःखनिवृत्तिका एकमात्र उपाय उच्छेद साधन करना वड़ा कठिन है। क्योंकि विवेक- है। अथच विवेकज्ञान द्वारा दुःखका उच्छेदसाधन शान दुःखसमुच्छेदका शास्त्रोपदिष्ट उपाय है । विवेक- होनेसे पुनः दुःखका आविर्भाव एकान्त असम्भव है। ज्ञान अनायाससाध्य नहीं है, अनेक जन्म-परम्पराले । कारण, मिथ्याज्ञान दुःखका निदान वा आदि कारण है, मेहनत करने पर विवेकज्ञान लाभ किया जाता है;- विवेकज्ञान द्वारा मिथ्याज्ञान समूल नष्ट होनेसे अकारण ___Vol. XVII, 93