पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४१८

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य-यकृद "त्रिशक्तिसहितं वयं त्रिविन्दुसहितं सदा। । अनुवन्धनविशेष । ३ छन्दःशास्त्र के अन्तर्गत गणविशेष । पणमामि सदा वर्ण शक्तिमन्मोक्षमव्ययम् ॥" छन्दःशास्त्रमें 'य' अक्षर रहनेसे प्रथम वर्ण लघु और शेष (वर्णोद्धारतन्त्र) | दो वर्ण गुरु समझे जाते हैं। (मादि गुरु पुनरादिलधुर्य:" इसका स्वरूप-यह वर्ण चतुष्कोणमय तथा पलाल (छन्दोम०) धूमसङ्काश और खयं परमकुण्डलो है। यह पञ्चप्राण, य (सं० पु०) यातोति या गतौ ड। १ यश। २ योग । पञ्चदेवतास्वरूप तथा त्रिशक्ति और लिविन्दुविशिष्ट है।यान, सवारो। ४ याता, सारथी। ५ संयम। ६ "यकार शृणु चाङ्गि चतुष्कोणमयं सदा । छन्दःशास्त्रमें यगणका संक्षिप्त रूप । ७ यव, जौ। ८ पलासधूमसङ्काशं स्वयं परमकुण्डली॥ त्याग। ६ प्रकाश। पश्चप्राणमय वर्ण पञ्चदेवमय सदा। यक (सं० त्रि०) यत्-अकच् ( अध्ययसर्वनाम्नामकटप्राकटे । त्रिशक्तिसहितं वयाँ त्रिविन्दु सहितं तथा। | पा ३३७१) यत् शब्दार्थ । जो। एक देखो। प्रणमामि सदावर्या मृत्तिम क्षमव्ययम् ॥" यकअंगी (हिं० वि०) १ एक अंगवाला। २एक पत्नी (कामधेनु ५ प०) या पतिके साथ रहनेवाला या वाली। ३ एक होके इसके पर्याय वा नाम-वाणी, वसुधा, वायु, | आश्रित, एक ही पर रहनेवाला । ४ एकाङ्गी देखो। विकृति, पुरुषोत्तम, युगान्त, श्वसन, शीघ्र, धूमार्थि (स्त्रो०)५ एकाङ्गी देखो। प्राणिसेवक, शङ्काभ्रम, जटी, लोला, वायुवेगी, यशस्करो, यककलम (फा० वि० ) १ एक ही वार कलम चला कर, सङ्कर्षण, क्षपा, वालहृदय, कपिलप्रभा, आग्नेय, ध्यापक, एक ही वार लिख कर । २ पक-वारगो, एकाएक । त्याग, होम, यान, प्रभा, सुख, चण्ड, सर्वेश्वरी, धूम, यकना (फा० वि०) जो अपनी विद्या या विषयमें एक ही चामुण्डा, सुमुखेश्वरी, त्वगात्मा, मलय, माता, हंसिनी, । हो। जिसके मुकाबलेका और कोई न हो । भृङ्गिनायक, शोषक, मीन, धनिष्ठा, अनवेदिनो, मेष्ठ, 'यकताई (फा० खी० ) यकता या अद्वितीय होनेको भाव, सोम, पंक्तिनामा, पापहा और प्राणनाशक । ये सव । अद्वितीयता। शब्द यकारवाचक हैं। । यकन् (सं० पु० ) यकृत् । यकृत् देखो। "यो वाणी वसुधा वायुविकृति: पुरुषोत्तमः। यकपरा ( फा० पु०) एक प्रकारका कबूतर । इसका युगान्तः वसनः शीघो धूमाश्चिः प्राणिसेवकः ॥ . सारा शरीर सफेद होता है केवल डैनों पर दो एक शहानमो क्षपा वालो हृदय कपिलमभा। काली चित्तियां होती हैं। आग्नेयो ब्यापकस्त्यागो होम यानं प्रभासुखम् ॥ यक-वयक (फा०वि०) एकवारगी, एकदमसे। चण्डः सर्वेश्वरी धूमश्चामुण्डा सुमुखेश्वरी। यकवारगी (फा० वि०) एक-वारगी, एक दमसे । त्वगात्मा मलयो माता हंसिनी भृङ्गिनायकः॥ यकवारगी (फा० वि० ) यकवयक, एकाएक । ते नमः शोषको मौनो धनिष्ठा नङ्गवेदिनी। यकसा ( फा०वि०) एक समान, वरावर । मेष्ठः सोमः पंक्तिनामा पापहा प्राणसंशका" यकायक (फा० वि०) एकाएक, एकवारगी। (नानातन्त्रशास्त्र) | यकार (सं० क्ली०) य खरूपे कार य-का वर्ण । मातृकान्यासमें इस वर्णका हृदयमें न्यास करना होता | यकीन ( अ० पु० ) प्रतीति, पतवार । है। काव्यके आदिमे इस वर्णका प्रयोग करनेसे लक्ष्मी | यकीनन ( अ ) अवश्य, बेशक । प्राप्त होती है। | यकृत् (सं. स्त्री०) यजु (शकेतिन् ! उण ५८ ) 'यो लक्ष्मी वस्तु दाहं व्यनयथ लवौ शः सुखं प्रस्तुखेदम।" इत्यत्र 'बाहुलकात् यजेः कश्च' इत्युज्ज्वलदत्तोक्त्या (वृत्तरत्नाकर) ऋतिन्, जस्य च कः। कुक्षिके दक्षिणभागस्य मांस. - मुग्धवोध-ध्याकरणमें दिकादिगणसूचक धातु । खण्ड, पेटमे दाहिनी ओरकी एक थैली जिसमें पाचनरस