पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४६०

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मझोपवीत . व्यवस्था। । ... "यज्ञोपवीतं परमं पवित्र हस्पतेयंत् सहजै पुरस्तात्। .. आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्र यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः : पारस्कर-गृह्यसूत्रमें उपनयन-व्यवस्थासम्बन्धमैं इस ____उपनयन संस्कार । प्रकार लिखा है, ब्रह्मचारी जिस समय भिक्षा लेगे, वेदाध्ययनके लिये वटुको गुरुके समीप ले जाते हैं, उस समय ब्राह्मणको भवत्' शब्दका पूर्व में प्रयोग करके इसीसे इस संस्कारको उपनयनसंस्कार कहते हैं। उप भिक्षा मागनी चाहिये, अर्थात् 'भवति भिक्षा देहि' ऐसा शब्दका अर्थ है गुरुके समीप, जिस कर्म द्वारा गुरुके | कह कर भिक्षा मांगे। क्षत्रिय "भवत्' शब्दका मध्यमें समीप लिवाया जाता है, वही उपनयन पदवोच्य है। और वैश्त अन्तमें प्रयोग करके मिक्षा ग्रहण करे। भिक्षा ___यह संस्कार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनोंमें | पहले माताले पीछे मातृवन्धु तथा अन्यान्य स्त्रियोंसे और होता है। इसमें एक विशेष नियम यह है, कि ब्राह्मण | उसके बाद पिता एवं पितृ-वन्धुओंसे मांगनी चाहिये। पालक के लिये आठवें वर्ष में यह संस्कार करनेका विधान मिक्षामें पाई हुई वस्तु आचार्यको निवेदन करके है। यदि इस समय विघ्नवशतः न किया जाय. तो १६ ब्राह्मण, क्षलिय और वैश्य इन तीनों वर्णके वटुक जब वर्षके भीतर जरूर करना चाहिये। यदि १६ वर्षके भी तक सूर्यास्त न हो, तब तक वागयत हो:अग्निके समीप भीतर न हो, तो उसे पतितसावित्रीक कहते हैं। पीछे बैठे रहें। इन तीनों ही वर्णोंको ब्रह्मचर्यावस्था चार- प्रायश्चित्त करके उसका उपनयन करना होगा । क्षत्रियों पाई आदि पर नहीं सोना चाहिये। क्षार..लवणका के लिये ११वां वर्ष उपनयनका प्रशस्तकाल है। इस , व्यवहार दिलकुल न करे। उन्हें दण्डधारण, अग्नि- समय यदि न हो, तो वीस वर्षके भीतर भी हो सकता ' परिचरण, गुरुशुश्रूषा और भिक्षाचर्या करना उचित है। है। बीस वर्षके बाद उपनवन देने में प्रायश्चित्त करना प्रतिदिन जो भिक्षा मिले, वह आचायको दे! मधु, मांस, मजन (हद और देवतीर्थादि स्नानका नाम मजन क्षत्रिय वालकके लिये १२वें वर्षमें उपनयन संस्कार करने है), उपासन, स्त्रीगमन, अनुतवाक्यप्रयोग और अदत्ता- का विधान है। इसके बाद १४ वर्ष-तक भी किया जा दान परित्याग करे। सकता है। यदि १४वें वर्णमें भी न हो, तो पूर्वोक- ४८ वर्ष तक ब्रह्मचर्यका अवलम्बन करना होता है। 'रूपसे प्रायश्चित्त करना होगा। पतितसावित्रोक होनेसे इतने दिनोंके अन्दर प्रति वेद १२ वर्ष करके पढ़ना उसे व्रात्य कहते हैं। बात्य होने पर उसका यथा- चाहिये। . विधान प्रायश्चित्त करके यज्ञोपवीत धारण करना ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यका वस्त्र यथाक्रम शाण, चाहिये। क्षौम और माविक होना चाहिये। ऐणेय अर्थात् हरिणका चर्म ब्राह्यणका, उत्तरीय रुरुका चर्म क्षत्रिय और वकर या गोचर्म वैश्यका उत्तरीय होगा । अथवा इन तीनों वर्णी-

    • गृह्योक्तकर्मणा येन समीपं नीयते गुरोः।

का गोचर्ग उत्तरीय हो सकता है। ब्राह्मणको रशना बालो वेदाय तधोगात् बालस्योपनयनं विदुः ॥ इतिस्मृतेः (मेखला ) मौझो अर्थात् मुअतृणकी क्षत्रियकी धना

  • गर्भाष्टमेषु ब्राह्मणामुपनयेत् । गमैकादशेष क्षत्रियः गर्भ-

और वैश्यकी मौवों या मुरु नामक तृणविशेषको मेखला पारशेषु वैश्वः । भावोसमादब्रह्मणस्यानतीतः कालो भवति होगी। भाद्वाविंशात् चात्रियल चतुर्विशष्ट पेभ्यस्य अत ऊर्ध्व पतित तथाच विष्णधर्मात्तरे- सावित्रीका भवन्ति । नैतानुपनयेयुनाध्यापयेयुन एतविवाहयेयुः । "षोड़शाब्दो हि विप्रस्य राजन्यस्य द्विविंशतिः । गर्भवर्षमष्टमं येषां वर्षायां सानि वर्षाणि गर्भाष्टमानि तेषु गर्भाध विंशतिः स चतुर्थी च वैश्यस्य परिकीर्तिताः । मेष वर्चमा बाइमपमुपनयेत् ।" सावित्री नातिवत्तेते अत ऊवं निवर्तते ॥", Vol. XVIII, 115