पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४८१

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यति-यतिचान्द्रायण

इन्द्रियोंको विषयशक्तिसे हटा कर वैदिक कम्मों और | कहे गये । यतिको चाहिये, कि वे पूर्वोक्त नियमके अन.

विकर तपस्या द्वारा ब्रह्मपद साधित होता है। सार दिन यापन करें। (मनु ७ अध्याय ) यह देह अस्थिरूप स्तम्भ पर खड़ी है, स्नायु रूपी २ ब्रह्माका पुत्र विशेष । (भागवत ४।८।१ ) रस्सीसे बंधी है। रक्त तथा मांस द्वारा लिपी पोतो ३ नहुषका पुत्र । ( भारत ११७५३०) ४ विश्वामित्र- गई है, चर्म द्वारा आच्छादित, मूल तथा विष्ठासे परिपूर्ण का पुन । है, दुर्गन्धमय, जराशोकसे आक्रान्त, तरह तरहके ५ कसे उपरत, अर्थात् जिन्होंने कर्मोका त्याग किया न्याधियोंका घर, क्षुधापिपासासे कातर, प्राय रजो- है। (ऋक् ८३९) गुणयुक्त है ; अनित्य तथा पञ्चभूतोंका आवास स्वरूप (स्त्री०) यम्यते रसनात्रेति (स्त्रियां . क्तिन् । पा है । यही जान कर इस देहको मायाका प्रतिकार करना २३६४) इति क्तिन् ( अनुदात्तापदेशवनतितनोत्यादीना- चाहिये। इसको पूर्ण चेष्टा करनी चाहिये, कि फिर| मिति । भिति। पा ६४१३७) इति मकारलोपः । ६ पाठ- हम इस देहवन्धनमें न पड़े। नदी किनारेका वृक्ष तथा विच्छेद, जिह्वष्ट विश्रामस्थान | पढ़ते पढ़ते जहां पक्ष पर बैठी चिडिया जैसे मानन्दसे स्थान त्याग करती है। विश्राम किया जाता है, उस स्थानको यति कहते हैं। वैसे ही ज्ञानवान् जीव प्राकन कमोपक्षय अथवा जीव-) छन्दोमारी में प्रत्येक छन्दमें कहाँ यति होगी, यह छन्दके मुक्त अवस्थामैं इस देहरूपी आश्रयको त्याग कर लक्षणोंसे जाना जाता है। संसारबन्धनरूपी गांउसे सुक्क होते रहते हैं, वे पुत्रादि श्वत माण्डव्य ऋषियोंने यति होनेकी इच्छा प्रकट प्रियसंयोग अपनो सुकृतिका तथा अप्रियसंयोग अपनी नहीं की थी। दुष्कृतिका कारण समझते हैं। इस तरहके ध्यानसे | "श्वेतमायडब्य प्रमुख्यास्तु निच्छन्ति मुनयो यतिम् । प्रियाप्रिय सुकृत-दुष्कृतादि चित्तके सब क्षोभाक्षोभोंको इत्याह मट्टः स्वग्रन्थे गुरुमें पुरुषोत्तम ॥" त्याग कर वे सनातन ब्रह्मको प्राप्त करते हैं। जिस (छन्दोम० १ अ०) भावसे सम्पन्न होने पर मन सब विषयोंसे निस्पृह होता नियम्यते इति यम-क्तिन, यतते चेष्टते व्रतादिरक्षार्थ- है, उसो भावसे ही इहलोक या परलोक सर्वन ही नित्य मिति या यत-इन् । ७विधवा । ८राग। सन्धि । सुख प्राप्त किया जा सकता है। ऐसे उपायसे क्रमशः (शब्दरबा०) १० वाद्याङ्ग प्रवन्धविशेष । सभी आसक्तियोंको दूर कर मानापमान, शीतोष्ण, सङ्गीतदामोदरके मतसे यति, रोढ़ा, आदि सुखदुःखादि समस्त द्वन्द्वभावोंसे मुक्त हो कर वे ब्रह्ममें बारह प्रवन्ध या लेख है। इसके भी फिर तीन भेद हैं। अवस्थान करते हैं। सभी तरहके कर्मफल ध्यानपरा- "चतुर्विधं पदं तालं त्रिप्रकार लयत्रयम् । यण मनुष्यको ही प्राप्य है, किन्तु ध्यानहीन अर्थात् यतित्रयं तथा तोद्य मया दत्तं चतुर्विधं ॥" आत्मज्ञानरहित व्यक्ति किसी भी क्रियाका फल नहीं (मार्क०३० २३५३) पा सकते। ___ यज्ञ देवता और परमात्माविषयक वेदमन्त्र अथवा ११ यमन, प्रतिवघ! उपनिषद् आदिमें जो वेदश्रुतियां अभिहित है उन | यतिचान्द्रायण ( स० क्लो०) यतिभिरनुष्ठेय चान्द्रायणं । सबोंका जप करना अवश्य कर्तव्य है। जो अज्ञानी व्रतविशेष। यति लोग इसका अनुष्ठान करते हैं, इस- हैं या जो ज्ञानवान हैं, या जो स्वर्गकामी या मुक्तकामी लिये इसका नाम यतिचान्द्रायण पड़ा है। "अष्टावष्टौ समश्नीयातू पिपडान मध्यदिने स्थिते । हैं, उन सवोंके लिये यह वेद हो एकमात्र अवलम्बन है।। नियतात्मा हविष्याशी यतिचान्द्रायण' चरन ।" ऐसे विधानसे जो ब्राह्मण संन्यास ग्रहण करते हैं, वे (मनु ११ अ०) · इहलोकके सब पापोंसे छुट कर परब्रह्मको पाते हैं। संयतात्मा परमहंस आदि यतियोंके साधारण धर्म इस चान्द्रायणमें पादोन धेनु चतुष्टय दान करने होते