पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५०३

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की गति जानी जा सकती है और अस्त, मध्यम और साधारण लग्नोंका अनुमान होता है। सूर्णसिद्धान्तके इस चचनसे अनुमान. होता है, कि दिनगत आदि काल के सूक्ष्मज्ञान प्राप्त करनेके निमित्त २-खय बाहगोलयन्त्र (Self-revolving Spheric inst- मारी गोशानिति और भी rument)-दिन और रात्रिकालनिर्णयार्थ यह यन्त। कार हुआ था। उनकी छाया ले कर समय माननिरूप- धना था.। दृष्टान्त गोलाकारमें छिन्न मोमजामेका । णार्थ शंकु (Gnomon), यष्टियन्त्र (staff jधनुः (are), कपड़ा लगा कर दि स्थिर कर लेते हैं। इसके चक ( Wheel ), आदि प्रसिद्ध छायासाधक यन्त्रका बाद उसका नीचला भाग जलप्रवाहके आधातके परि आविष्कार हुआ था। चालित कर लेनेसे मेरुदण्डाधित वह दृष्टान्त गोलक शंकुत्र (Gnomon)-काल और दिक निर्णयके धीरे धीरे भ्रमण करने लगता है। यह लोकालोक वेष्टित निमित्त यह यन्त्र व्यवहृत होता था। जलसे समीकत अर्थात् दृश्यादृश्य सन्धिके वृत्तके द्वारा क्षितजिल्यावृत्तके | शिलाप्रदेश अथवा वज्रलेप चबूतरा आदि सम स्थानमें साथ संसक्त होता है। बहुतेरे लोग तुङ्गवोज एकत्र | सकेन्द्र एक घृत अङ्कित कर उस पर १२गल विभाग करके भी दांत गोलके स्वयंवाही कार्य सम्पादन किया मान एक लकड़ीको किल शंकु समतल मस्तक परिधि करते हैं। सूर्यसिद्धान्तके गुढ़ार्थप्रकाश नामको काठदण्ड रखना चाहिये। टोका रङ्गनाथने इसकी प्रक्रिया इस तरह लिखी है। "समतलमस्तकपरिधि मसिद्धोदतिदंतजा शंकु । जैसे- तच्छायाता मोक्त ज्ञानं दिग्देशकालानाम् । "निवद्धगोलवाहिभूतषष्टिप्रान्तयोय धेच्छया स्थान- (सिद्धातशि० यपाध्याय लोक) द्वये स्थानत्रये वा नेमि परिधिरूपामुत्कीर्यतां ताल- इस तरह वृत्तकेंद्र पर शंकुस्थापित कर दिनको पतादिना चिक्कण वस्तुलेपेनाच्छाद्य तत्र छिद्र कृत्वा- पूर्वाह और अपराह्न अर्थात् उदय कालके बाद शंकुके तन्मार्गेण पारदोई परिधी पूणों देय, इतराद्ध परिधौ जलं छायांत प्रदेश-मण्डल परिधिके जिस ओर मिपतित व देयं ततो मुद्रित छिद्र कृत्वाषष्टायने मित्तिस्थनलिक होगा, वह पश्चिम और मध्याहू या माध्यन्दिन रेखा पार योः क्षेप्ये, यथा गोलोऽन्तरीक्षा भवति। ततः पारद- कर अस्तकाल तक सूर्यकी छाया जो विपरीतकी ओर जलाकर्पितषष्टिः स्वयंभ्रमति । तदाश्रिती गोलश्च ।। पतित होती है, उसो भोरको पूर्व कहते हैं। इस यन्त्रको उपकारिता पर ध्यान देनेसे अनुमान इसके बाद पूर्व और पश्चिमके शंकु च्छायान- होता है, प्राचीन ज्योतिर्विद्गण प्रहादि ज्योतिष्क मण्डली विन्दुद्वयकी केन्द्र बना कर परस्पर सम्मिलित रेखाको के साथ-साथ पृथ्वीकी भी अपनी कक्षा परभ्रमण करने घु ज्या कर वृत्त अङ्कित करो। इस निष्पाद्यवृत्तव्यको की बात स्वीकार करते थे। साधारण जानकारीके परिधि परस्पर परस्परके पार करेगी। परिधि विभा- "लिये चे प्रकाशित जगत्की तरह अपने रचे दृष्टान्त गोल- जित वृत्तांशद्वय सम्मिलित स्थानको तिमि (मत्स्या- के भी आहिक आदि गति स्थिर कर यन्त्रके साहाय्यसे कार) कहा गया है। इसके वाह्यवृत्तभागको पोंछ कर दिखा गये हैं। फिर वे केवल स्वयंवाही यन्त्र तय्यार क देनेसे वत्तसंयुक्त एक ओर तिमिमुख और दूसरा कर ही निश्चित नहीं थे; वरं वे प्रकृत भूगोलके दिवा- संयोगांश घोछ है। इस मुखसे एक सरल रेखा वीच रात रूपकाल परिवचनके अनुकरणसे यह अनुकल्प को पूर्वी और पश्चिमी रेखाको काटती हुई पुच्छ या गोलको भी निरूपित समपके सामञ्जस्य-रक्षा करने में | पोछ तक खीचनेसे एक दक्षिणोत्तर रेखा बन जाती समथ हुए थे। है। इसको याम्योत्तर रेखा ( meridian circle) "कालसंसाधनार्थाय तथा यत्राणि साधयेत् ॥ १६ कहते है। इससे दिशा और भूपृष्ठके देशके स्थान और एकाकी योजयेदीनं यो विस्मयकारिणि । कालका निरूपण हो सकता है। इस यन्त्रसे यह सहज शक्षा यष्टिधनुश्चक्रच्छायायत्रैरनेकधा ॥२० गुरूपदेशाद्विशेष कालज्ञानमत द्रितः।(स्य सिद्धांत) / ही निर्णय हो सकता है कि सूर्य देव दिन में किस