पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५४५

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५४२ यवतैल-यवन साग । ३ शशतुण्डि, ककड़ी। ४ मारिष, मरसा नामक , यवन (सं० पु०) योति मिश्रीभवतातिपु ( सुयुरु वृष्णो साग। (राजनि०) । युच् । उण २।७४ ) इति युच्। यवन नामक नगर- यवतैल (स० क्ली०) यवनिर्मित तैलं। यवचूर्णादि- निवासी जातिविशेष । इस यवनदेशका विवरण मत्स्य- युक्त पक्वतैल विशेष । वह तेल जो जौके चूरसे तैयार पुराणमें इस तरह लिखा है,-- किया गया हो। ज्वर, दाह, वेग और शरीरके दर्द में "तान् देशान् प्लावयतिम म्लेच्छप्रायोश्च सर्वशः । इस तैलकी मालिश करनेले बड़ा फायदा पहूंचता है। सशैलान् कुकुरान् रौधान् वर्वरान् यवनान् खसान् ।" यवदोष (सं० पु०) जौके आकारकी एक रेखा जो रत्नोंमें (मत्स्य पड़ जाती है और जिससे वह रत्न बहुत दूषित हो पु. १२०-४३) यवनदेशोद्भव होने के कारण इस जातिका यवन जाता है। नाम पड़ा। ये ययातिराजपुत्र तुर्वसुके वंशधर हैं। यवद्वोप (सं० पु०) यवनामा द्वोपः मध्यपदलोविकर्मधा- रयः। उपद्वीपविशेष। "यदोन्तु यादवा जातास्तुर्दसोर्यवनाः स्मृताः । "यत्नवन्तो यवद्वीपं सप्तराज्योपशोभितम् ।। द्रुह्योः सुतास्तु वै भोजा भनोस्तु म्लेच्छजातयः ॥" (भारत १९५.८४ सुवर्ण रूपकद्वीप सुवर्ण करमण्डितम् ॥" (रामायण ४४. सर्ग) सिवा इसके मार्कण्डेयपुराणके ५८५२वें और अंगरेजी में यह Jara नामसे प्रचलित है। यह भारत- मत्स्यपुराणके ३४वें अध्यायमें लिखा हुआ है, कि वे राजा ययातिके शापसे तुर्वसुके वंशधरगण सदाचारहीन हो महासागरके द्वोपोंमें एक है और बहुत प्रसिद्ध है। कर यवनजातिमें मिल गये। इङ्गलैण्डके ओलन्दाजोंका यह प्रधान वैदेशिक साम्राज्य । किन्तु महाभारतके ५४वें अध्यायके आरम्भमें ही है। यवद्वीप यद्यपि वड़ा नहीं है, तो भी यह अतीत , कालकी प्राचीनकीत्तियोंके गौरवस्तम्भोंको अपने वक्ष पर, राजा ययातिने तुर्वसुको यह कह कर शाप दिया है :- धारण कर ऐतिहासिकोंको चमत्कृत कर रहा है। यहां 'यत्त्वं हृदयाजातो वयः खन प्रयच्छसि । हिन्दूराज्यकी गौरवसमाधि और वौद्धाविर्भावके पदचिह्न तसात् प्रजा समुच छेदं तुर्वसोतवषास्यसि ॥ आज भी उज्ज्वल वर्णमें चित्रित है। भारत महासा संकीर्णाचारधर्मेषु प्रतिलोमचरेषु च । गरीय अन्यान्य द्वीपोंको जनसंख्यामे यहांको जनसख्या पिशिताषु चान्त्योषु भूद राजा भविष्यसि ॥ कहीं अधिक है। यहांकी उपजने होलैण्डको ऐश्वर्य गुरुदारप्रसक्तेषु तिर्यगयोनिगतेषु च । शालिनी बना दिया है। पशुधर्मेषु पापेप म्लेच छेपु त्वं भविष्यसि ॥" ___ यवद्वीप १०५.१० से ११४ ३४ पू० तथा ५५२ । (मारत १९४।१३-१५) से८४६ दक्षिणके मध्य विस्तृत है। यह द्वोप पूर्व उक्त प्रमाण द्वारा अनुमान होता है, कि म्लेच्छ और पश्चिममें ६२२ मील लंबा और उत्तरदक्षिणमें १२१ मोल यवन दो भिन्न जातियां हैं। तुर्वसुवंशीयगण यवनदेशमें चौड़ा है। यहांसे १॥ मील पूरवमें अवस्थित वालि- वसनेके कारण सम्भवतः यवन और अनुके वंशधर द्वीपको पाश्चात्य भौगोलिकगण यवका ही अंश वत म्लेच्छ कहलाये। लाते हैं। इसीसे वालिका नाम क्षुद्रयव या छोटा जावा महाभारत आदिपर्वके १७५ अध्यायमें लिखा है, ( Little Java) है। वालिद्वीप देखो। कि वशिष्ट और विश्वामित्रमें विरोध उपस्थित होने पर यवद्वीप हालैण्डसे चौगुना बड़ा है। रकवा ५०३६० जव विश्वामित्र के सैनिकोंने बलपूर्वक नन्दिनीको पकड़ वर्गमील और जनसंख्या ३ करोड़से ऊपर है। लिया, तव वशिष्ठजीने यवनोंकी भो सृष्टि कर शत्रुसैन्य. विशेष विवरण जावा शब्दमें देखो। मैं मुकाबलेमें भेजा था।