पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६३८

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६५ यावा देखनेसे मालूम होता है, कि दो विभिन्न दूर देशीय लोगोंने लिङ्गयात्रा होती है। भंसे आदिको वलि दे कर पूजा की किस तरह इस घटनाका अनुकरण किया था। होलिको- जाती है। भैरवीके उद्देश्य से नेतादेवीको यात्रा और देवी त्सवमें कृष्णको एक मञ्च पर बैठा कर जैसे युक्तप्रांतीय यात्राके नामसे जो दो उत्सव वैशाखो शुक्लाचतुर्दशीको लोग माथैमें अधीर लगाकर गाते जाते और घूमते हैं। होते हैं, उनमें स्वयं नेपालनरेश और कई सरदार उपस्थित उडीसमें भी जगन्नाथदेवको ले कर इसी तरहसे घूमनेको होते हैं। इस उत्सवमें रातको जो अभिनय होता है, रोति है। देवताको यह यात्रा ही यथार्थमें यात्रा है। वह बङ्गालमें होनेवाली यात्राके समान ही है। कृष्णको नायक वना सभी अपनेको उनका सखा समझ ____रातको वहां बारह नचनिये छोकड़ोंको नकावपोश उनकी लीलाके मंशका भागी होनेके लिये उत्सवमें डाल कर धार्मिक साजोंसे सुसजित करते है। इसी योगदान करते हैं । इसी घटनाको यात्रा (Going in| तरह दूसरे चार आदमी भैरव, भैरवी या कालो, वाराही procession ) कहते हैं। क्रमशः इस देवलीलामें जाना और कुमारीका साज पहन कर मन्दिरके सामने आ कर और योगदान करनेकी घटना इतनी सोमावद्ध हो गई थी, : अभिनय करते हैं। ये सभी बहुमूल्य साजोंसे सजित कि लोग साधारणको यह लोला दिखलानेकी अभिलापा; और अलाडोंसे अलंकत हो कर यहां आते हैं। रात्रिको न कर एक ही स्थानमें बैठ कर लोला करने लगे। हो ये नाचते गाते हैं और सवेरा होते ही यह अभिनय प्राचीन महोत्सवकी विषयीभूत प्रकरणावलीने धीरे ! भड़ा हो जाता है। धीरे सङ्कीर्ण हो कर वर्तमान लीला या यात्रा (अर्थात् | नयाकोटकी देवीयात्रा अति प्रसिद्ध है। इस समय एक जगह बैठ कर नृत्यगीतादि द्वारा देवलीला अभि- नय) का रूप धारण किया है । इसका प्रकृष्ट उदाहरण त्रिशूलाके तोरके देवीघाट पर भैरवीदेवीको मूर्ति भवभूतिक उत्तर-रामचरितादि नाटकमें दिखाई देता स्थापित करते हैं। पांच दिनों तक दिन में पूजा और है। भवभूतिने लिखा है, कि कालप्रियनाथके उत्सवमें । रातको नृत्यगीत सम्पन्न होता है। इस समय दो धी- उत्तररामचरित, मालतीमाधव आदि नाटक अभिनीत को भैरव और भैरवी धना कर रङ्गभूमिमें लाते हैं। हुये थे। इस पवित्र उत्सव या लीलामें किस तरह भांड- साधारण हिन्दू और बौद्धगण उनको देवता समझ कर का नाच और रङ्गतमाशा आ कर घुस पड़ा था, उसका पूजा और भक्ति करते हैं। पूजाके समय जो भैसेकी प्रकृष्ट निदर्शन हम नेपालकी देवलोला प्रकरणोपलक्षमें | चाल दा जाता है, उसका ताजा रक व पात वलि दो जाती है, उसका ताजा रत वे पीते हैं। देखते हैं। इस समय नेपालमें मत्स्येन्द्रनाथ, भैरव | __ सिवा इसके यहां रथयात्राके नामसे जो उत्सव आदिकी यात्राओंमे जो अभिनय दिखाया जाता था, प्रचलित है, वह बहुत दिनोंका पुराना नहीं है। सन् उसकी आलोचना करनेसे वंगालको यात्रारूपो संगीता- १७४०-५० ई०के बीच राजा जयप्रकाशमलके आदेशसे भिनयका पूर्वादर्श कुछ मालूम हो जाता है । यह यात्रा या उत्सवप्रचलित हुआ। प्रवाद है, कि सप्तन- नेपालकी नेवार जातिमें अब भी यात्राभिधेय जो वर्षीय कोई वांढा कुमारीने अपनेको 'कुमारी' कह कर परि सव उत्सव प्रचलित हैं, उनमें भैरवयाता, गाइयाता, चित करनेकी चेष्टा को। राजाने इस वालिकाको राज्य- वांदायात्रा (नेपालमें वौद्धगुरुओंको वांढा कहते हैं)11 से निकाल दिया । इस दिन रातको रानी वायुरोगसे इन्द्रयावा, बड़े और छोटे मत्स्येन्द्रनाथको यात्रा और पकने लगी। उनके मुंहसे निर्वासित वालिकाके देवोत्व- नेतादेवीको यात्रा ही प्रधान है। की बात सुन राजाने उस वालिकाको सैन्य भेज कुमारो वहांको भैरवयात्रा में पहले भैरव और भैरवीमूर्ति पृथक् समझ कर अपने राज्यमें बुला लिया। उसी समयसे पृथक रूपमें स्थापित कर नगरका परिभ्रमण कराया जाता, उस कन्याको घटनाका स्मरण रखनेके लिये एक रथ- है। यह उत्सव रथयातासे मिलता जुलता है । इसके बाद यात्राका उत्सव होने लगा। इस उत्सवके लिये एक दरवारकेसामनेके भैरव मन्दिरमे एक लकड़ी खड़ी कर जागीर दी गई है। इसो जागीरकी आयले प्रतिवर्षइस