पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७१५

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७१५ योग देहरूप उपाधिका धर्म स्थूलता, कृशता, सुख दुःखज्ञान | एक वस्तुको अन्य रूपमें जाननेका नाम विपर्याय आदि पुरुषमें आरोपित होता है। इसीसे सुखी, दुःखो | वा भ्रमज्ञान है ; जैसे रज्जुमें सर्पज्ञान, शुक्किमें रजतज्ञान आदि रूपमें पुरुष आयद्ध होने हैं। जवाकुसुमको फेंक | आदि। पहले शुक्ति रजत आदि भ्रमज्ञान होता है, पोले देनेसे स्फटिकमें फिर उसकी रक्तिमा रहने नहीं पाती, यह रजत नहीं है, शुक्ति है, सर्प नहीं है, रज्जु है, इस स्फटिक अपने स्वच्छधवलभावमें दिखाई देता है। उसी प्रकार यथार्थ ज्ञान हो जानेसे पूर्वज्ञान तिरोहित प्रकार उक्त दोनों शरीरसे पुरुषका सम्बन्ध नाश कर होता है। सकनेसे पुरुष, कोई संसार-बंधन न रह जाता, वह 'यह वह है कि नहीं' इत्यादि संशयज्ञान भी विपर्याय- अपने स्वच्छ-निर्मलरूपमें अवस्थान करके मुक्त हो सकता के अन्तर्गत है। विपर्याय और संशयमें भेद यहो है, कि है। केवल चित्त पुरुषका विषय नहीं है, विषयाकारमें विपर्यायस्थलमे विचार करके पदार्थका अन्यथाभाव प्रतीत परिणामरूप वृत्तियुक्त चित्त ही पुरुपका विषय है अर्थात् होता है, ज्ञानकालमें वह नहीं होता। संशयस्थलके वृत्तिविशिष्ट चित्तको ही छाया पुरुष पर पड़ती है। ज्ञानकालमें हो पदार्थाकी अस्थिरता प्रतीत होती है 'कभी भी वृत्ति न होमो' चित्तको इस प्रकार कर सकने अर्थात् संशयस्थलमें सभी पदार्था 'यह यहो रूप है ऐसा से ही पुरुषको मुक्ति होती है। यही उपाय असम्प्रज्ञात निश्चय नहीं होता। उत्तरकालमें ज्ञान होनेसे 'वह वह योग है। रूप नहीं है। ऐसा बाधित होता है। योगमें चित्तको सभी वृत्तियों को निराध करना। विषय नहीं रहने पर भो (नरङ्ग प्रभृति) शब्द होगा, वे सब वृत्तियाँ क्या है, पहले यही जानना आव- ग्रहण करनेसे सवोंको एक प्रकारका ज्ञान होता है, जिसे श्यक है। वृत्तिको विना जाने उले निरोध नहीं किया विकल्पवृत्ति कहते हैं। शब्दमें एक ऐसा अनिर्वाचनीय जा सकता। चित्तकी वृत्ति असंख्य है, उसका विषय । प्रभाव है, कि अर्थ चाहे रहे चाहे न रहे, उच्चारित होने- हजारों जन्ममे नहीं जाना जा सकता। इस कारण से ही एक अर्थ वतलो देता है। मीमांसकने कहा है, पतञ्जलिने चित्तको वृत्तिको पांच भागोंमें विभक्त किया। “अत्यन्तमपि असत्यर्थे शब्दो ज्ञान करोति हि" अर्थात् है। एक एक करके सभी पत्तियां तो मालूम नहीं हो पदार्थ असत् होने पर भी शब्दज्ञान उत्पन्न करता है , सकती, पर पांच प्रकारमे शेणोवद्ध करनेसे वह सहजमें। नरशृङ्ग, आकाशकुसुम आदि पदार्थ नहीं है, फिर वे मालूम हो सकती है। उन पांच वृत्तिके नाम ये हैं, सव शब्द सुननेसे एक अर्थ समझा जाता है, इसीको प्रमाण, विपर्याय, विकल्प, निद्रा और स्मृति। विकल्पवृत्ति कहते हैं । सत्यस्थलमें शब्द, अर्थ और इन्द्रियरूप प्रणाली द्वारा वाह्यवस्तुके साथ चित्तका ज्ञान ये तीनों वर्तमान रहते है । विकल्पस्थलमें अर्थ उपराग ( सम्बन्ध ) होनेसे उस वाह्यविषयमें सामान्य नहीं रहता, केवल शब्द और ज्ञान रहता है। विकल्प और विशेषस्वरूप अर्थका विशेष निश्चय जिसमे प्रधान वृत्ति द्वारा कहो तो अभेदमें भेद और कहीं भेदमें रहता है, ऐसी चित्तवृत्तिको प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। अभेद प्रतीत होता है। 'इन्द्रियप्रणालिकया चित्तस्य वाद्यवस्तुपरागात् तद्विषया सामान्य "अभावप्रत्ययालम्बना वृत्ति निद्रा ।" ( योगसूत्र १२११) विशेषात्मनोऽर्थस्य:विशेषावधारणाप्रधानावृत्तिः प्रत्यक्ष प्रमाण' अर्थात् जिस वृत्तिका अभाव प्रत्यय ही आलम्वन ( व्यासभाष्य ) अर्थात् इन्द्रियोके वाह्यविषयमे आसक्त है, वही निद्रा है । अतएव निद्रा एक प्रत्यय वा अनुभव- होनेसे उसी वस्तु में चित्तका अनुराग उत्पन्न होता है। विशेष है। क्योंकि, जाग्रत् अवस्थामें उसका स्मरण पीछे सामान्य वस्तु अवस्थित होनेसे उस उस विषयका | होता है । मैं सुखसे सो रहा था, मेरा मन निर्मल हो विशेष रूप अर्थवोध होता है । इसका नाम प्रत्यक्ष प्रमाण कर स्वच्छवृत्ति उत्पन्न कर रहा है, यह सात्त्विक स्मरण है। इस मतसे प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम यही तोन है। मैं दुःखसे सो रहा था, मेरा मन अकर्मण्य हो कर प्रमाण हैं। प्रमाण देखो। आस्थरभावमें भ्रमण कर रहा है, यह राजसिक स्मरण