पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७२०

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• ६१७ धारणा सिद्ध होनेके वाद ध्यान करना उचित है। निर्वितर्क, सविचार और निर्विचार ; इन्हें सवीज दूसरे विषयसे हटा कर पूर्वोक्त जिस विषयमें चित्त कहते हैं। स्थिर किया जाता है, उस विषयाकारमें वार वार चित्त ____ उसके भी निरोधसे जव सभी निरुद्ध होते हैं, तव वृत्तिके परिणत होनेका ध्यान कहते हैं अथात् पूर्वोक्त जिस निवौंज समाधि हाती है। यह निवर्वीज समाधि ही पात किसी भी विषयमें चित्तकी धारणा हुई है उस विषयमें वार अलका अनुमोदितयोग है। वार सदशरूपमें वृत्ति होना हो ध्यान है। विना ध्येय आलं ___यह निवौंज समाधि या योग आयत्त होनेसे पुरुषके वनके अन्य विषयमें किसी प्रकारको चित्तवृत्ति न होगी, | स्वरूपमें अवस्थान होता है । तव पुरुषको शुद्ध मुक्त कहते फिन्तु ध्येयाकारमें चित्तवृत्तिका सदृश प्रवाह होगा। हैं। इसीको नाम कैवल्यसिद्धि है । यही पातञ्जलदर्शनका ऐसा होनेसे ध्यान सिद्ध हुआ है, ऐसा जानना चाहिये। चरमलक्ष्य है। ध्यानके वाद समाधि होती है। यही योगका चरमफल ___ ज्ञान उत्पन्न होनेसे अदर्शन (अविद्या ) को निवृत्ति है। समाधि होनेसे फिर योगानुष्ठानको आवश्यकता | होती है ; अदर्शनकी निवृत्ति होनेसे पञ्चक्लेशकी निवृत्ति नहीं रहती। होती है ; क्लेशकी निवृत्ति होनेसे कर्म परिपक्व हो कर ____ ध्यान परिपक्व हो कर जव ध्येयाकारमें भासमान फिर फल उत्पन्न नहीं कर सकता। इस अवस्थामें होता है, चित्तवृत्ति रहते हुए भी नहीं रहनेके समान प्रयोजनके चरितार्थ होनेसे प्रकृति फिर पुरुषको दृश्य मालूम पड़ता है, उस अवस्थाका नाम समाधि है। नहीं होती। पुरुष उस समय केवल ( खतन्त्र ) होते हैं जिस प्रकार जवाकुसुमके समीप परिशुद्ध स्फटिक- तथा निर्मल ज्योतिःस्वरूपमें अवस्थान करते हैं। . का अपना शुक्लगुण भासमान नहीं होता, उसी प्रकार | उस समाधियोगको अवस्थामें अविद्यादि समस्त विषयाकारमें सर्वथा लीन हो कर चित्तवृत्ति पृथक् फ्लेश और कर्मरूप आवरणसे चित्त-सत्त्व मुक्त होनेसे भावमें अनुभूत नहीं होती, यही अवस्या समाधि है। उसका प्रसार होता है। उस समय उसकी ज्योति सभी ___ यह समाधि दो प्रकारकी है, सवीज और निवौंज । सवीज समाधिमें चित्तका आलम्बन रहता है, उस स्थानों में फैल जाती है। उस अवस्थामें योगीसे कोई अवस्थामें चित्तको सूक्ष्म सात्त्विक वृत्ति तिरोहित नहीं भी विषय छिपा नहीं रहता। जिस योगसिद्धके ऐसा तत्त्वज्ञान हो गया है, उनके लिये प्रकृति फिर परिणत हो होतो। इसीसे सवोज समाधिको एक दूसरा नाम सम्प्रज्ञात-समाधि भो है। निवींज समाधिमें चित्तको कर भोग या अपवर्ग उत्पन्न नहीं करती। यही • सभी वृत्तियां तिरोहित होती है, केवल संस्कारमात्र कैवल्य तथा पातालदर्शनोक्त मुक्ति है । इस रह जाता है। इसीसे इस समाधिको असम्प्रज्ञात समाधि अवस्था चितिशक्ति (पुरुष)को स्वरूपमें प्रतिष्ठा कहते हैं। होती है। व्यासभाष्यमें समाधिका ऐसा लक्षण किया गया ये सब योगाङ्ग सिद्ध होनेसे नाना प्रकारके संतोष और क्षमता, अणिमादि ऐश्वर्यलाभ तथा अन्तमें कैवल्य- ____ध्यानमेव ध्येयाकारनिर्भासं प्रत्ययात्मकेन स्वरूपेण अन्य मुक्ति प्राप्त होती है। उसी समय योगको चरमफल हुआ मिव यदा भवति ध्येयस्वभावावेशात् तदा समाधिरित्युच्यते ।" है, ऐसा स्थिर करना होगा। . . ____उस समय ध्येय वस्तु अच्छी तरह प्रज्ञात होती है। ___गीता और पातञ्जल । . क्योंकि, उस समय ध्येयविषयक वत्ति भो निरुद्ध होती पहले ही कहो जो चुको है, कि गीता भी एक योग- है, इस कारण कुछ भी प्रज्ञान नहीं होती । उक्त | शास्त्र है। अब देखना चाहिये, कि गीता और पातजलमें दोनों प्रकारके पोगोंका साधारण नाम समाधियोग है। किसी प्रकारको पृथक्ता है कि नहीं ! गीताने योग- सम्प्रज्ञातसमाधि चार प्रकारको है-सवितर्क,! प्रणालीका अनुमोदन किया है । गोताके मतमे- Vol. XVIII, 180