पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७३४

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७३१ . योगासन धावित होता है, तब नित्य, नैमित्तिक, काम्य और निषिद्ध भी अनन्त है, उनमें महादेवने चौरासी लाख आसनोंको किसी भी प्रकार कर्ममें चित्तवृत्ति प्रवृत्त नहीं होती; उल्लेख किया है। उन आसनोंमें चौरासी प्रकारके मासन अर्थात् अपने किसी भी प्रयोजनकी सिद्धिकी आवश्य- हो प्रधान हैं और उनमेंसे मर्त्यलोकके लिए ३२ प्रकारके कता नहीं रहती, और अमुक कार्य करना होगा, अमुक । आसन हो शुभदायक है । मत्स्यलोकमें वे इन ३२ प्रकारके कार्य करनेसे अमुक फल होगा, मनोवृत्तिको अन्तर्मुखता आसनों पर बैठ कर योगाभ्यास करना हो विधेय है। वशतः अन्तःकरणमें ऐसे सङ्कल्पोंकी तरङ्ग नहीं उठती। ____वत्तीस प्रकारके आसन-१ सिद्ध, २ पद्म, ३ भद्र, ऐसे पुरुष ही योगारूढ़ है। ४ मुक्त, ५ वन, ६ स्वस्तिक, ७ सिंह, ८ गोमुख, ६ वीर __ मनोवृत्तिको रोकनेकी सामर्थ्य ही योगीका प्रधान | १० धनुः, ११ मृत, १२ गुप्त, १३ मत्स्य, १४ मत्स्येन्द्र, लक्षण है। महर्षि पतञ्जलिने योगसूत्रमें पहले ही कह | १५ गोरक्ष, १६ पश्चिमोत्तान, १७ उत्कट, १८ संकट, दिया है, कि "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" मनकी समस्त १६ मयूर, २०, कुक्कुट, २१ कूर्म, २२ उत्तानकूर्मक, २३. वृत्तियोंके निरोधका नाम ही योग है। चित्तकी वृत्ति उत्तानमण्डूक, २४ वृक्ष, २५ मण्डूक, २६ गरुड़, २७ वृष, पांच प्रकार हैं:-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और | २८ शलभ, २६ मकर, ३० उष्ट, ३१ भुजङ्ग, ३२ योग स्मृति । इन्द्रियादि द्वारा उपलब्धि करके मनके अनु (योगासन ) ये बत्तीस प्रकारके आसन सिद्धिप्रद हैं। भवविशेषका नाम प्रमाण है। अविद्या, अस्मिता, राग, "आसनानि समस्तानि यावन्तो जीवजन्तवः। द्वेष, अभिनिवेशादि वृत्तियों के भेदसे मिथ्याज्ञानको चतुरशीतिलक्षाणि शिवेन कथितं पुरा॥ होना विपयय है। शब्द सुन कर विशेष अर्थवाद-शून्य तेषां मध्ये विशिष्टानि पोड़शोनं शतं कृतम् । चिन्ता विशेषका नाम विकल्प है ; जैसे-वन्ध्यापुत्र, तेषां मध्ये मर्त्यलोके द्वात्रिशदासनं शुभम् ॥ आकाशकुसुम इत्यादि शब्द सुन कर तत्तावत्के प्रक सिद्ध पद्म तथा भद्रं मुक्त वज्रश्च स्वस्तिकम् । ताथके अभावमें कोई यथाथ अनुमति न होनेसे एक सिंहञ्च गोमुखं धीर धनुरासनमेव च ॥ अलोक चिन्तामात्र उदित होती है, उस प्रकारको चित्त मृतं गुप्त तथा मात्स्यं मत्स्येन्द्रासनमेव च। वृत्तिका नाम विकल्प है। प्रमाण, विपर्यय और स्मृति गोरकं पश्रिमोचान उत्कटं सङ्कटं तथा ॥ ये वतियां तमोगुणके गंभीर आवेशले स्फूरित नहीं मयूरं कुक्कुटं कूमै तथा चोत्तानकूर्माकम् । होती। ऐसी चित्तवृत्तिका नाम निद्रा है। पूर्वानुभूत उत्तानमण्डूक वृक्ष भण्डूकं गवई वृष ।। संस्कारसे जिस ज्ञानका उदय होता है, उसे स्मृति कहते शलभ मकरं उष्ट्र भुगमञ्च योगासनम् । हैं। ऐसी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियोंको जो निरोध करनेमें | द्वात्रिंशदासनानि मर्त्यलोके च सिद्धिदम् ॥" समर्थ हैं, वे ही योगारूढ़ है। योग शब्द देखो। (धेरपसंहिता) योगासन (सं० पलो) योगस्यासन, योगसाधनमासन इन सब आसनोंके लक्षण घेरण्डसंहितामें इस प्रकार मिति वा । ब्रह्मासन, ध्यानासन, पद्मासन आदि। । कहे गये हैं;- (भट्टिटीका १७७ जथम.) १ सिद्धासन-जितेन्द्रिय और योगी व्यक्ति एक . जिस आसन पर बैठ कर योगाभ्यास किया जाता गुल्फ द्वारा योनिख्यान (गुह्यदेश में उदयभागसे ले कर है, उसे योगासन कहते हैं। आसनके विना योगाभ्यास | कोषमूलके निम्नमाग तक स्थानको योनि कहते हैं ) को नहीं हो सकता, इसलिये योगावलम्बोके लिये आसन पोड़ित करके तथा दूसरे गुल्फको उपस्थके ऊपर रख सबसे अधिक प्रयोजनीय है। कर हृदयके ऊपर चिवुक रक्खे, फिर स्थिर और अवक- इस आसनके विषयमें घेरण्डसंहितामें इस प्रकार । शरीर हो कर अस्थिर दृष्टिले दोनों भ्रूओंके मध्यभागको लिखा है- • देखे, इस प्रकारके आसनको सिद्धासन कहते है। इस . जीव-जन्तुओंकी संख्याके समान आसनकी संख्या । सिद्धासनके द्वारा मोक्षकी प्राप्ति होती है।