पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/११९

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वाद्ययन्त्र . ही ये पातत्रिकाएं मकारित और ध्वनित हो फर| इच्छाके अनुसार ही घांध लेता है। इन तारों पर आघात स्थरको गम्भीरता प्रकाश करती हैं। इस यन्त्रको करने को कोई आवश्यकता नहीं होती, प्रधान तारपे धारणा और वादनप्रणाली रुद्रवीणाके धारण तथा आघात करनेसे हो ये झन उठते हैं। इसमें और एक । घादन प्रणालोफे समान है, सिर्फ विशेषता यह है, कि विशेषता यह है, कि कच्छपी वीणामें एक हो तन्नासन , रुद्रयोणा दांये हायको तर्जनी में मछलीका चोइटा बांध व्यवहार होता है और इसमें दो। इन दोनों तन्त्रासनों में कर एवं उसके द्वारा नांतों वा तारो'में आघात करके ! पकका आकार दूसरेको अपेक्षा कुछ छोटा होता बजाई जाती है और इसके यजाने में पाप हायकी कान है। यह छोटा तन्वासन प्रधाग तन्वासनसे प्रायः एक छादि चार उंगलियां व्यवहन होती हैं। इसके बजानेमे वालिश्त ऊपर रहता है, उसके ऊपर उक्त पीतल के अप्र. मछलीका चोइटा उंगली में यांधनेको मारश्यकता! धान तार लगे रहते हैं। सुरवहारका भाकार कच्छपी. नहीं होती। यंगालमें इस यन्त्रका अधिक प्रचार नहीं। को अपेक्षा कुछ बड़ा होनेके कारण उसका स्वर ऊ'चा है। पश्चिम देशीय लोग हो अधिकतर इसका उपय और अधिक क्षण स्थायी होता है। सुरवहारकी तार •हार करते हैं। मुसलमान सजागो'के राजत्वकाल में स्या, सारिका विन्यास, धारण तथा चादन प्रणाला इसका बड़ा भादर था। कच्छपीके समान ही होती है। यह एक आधुनिक यन्त . स्परगार। हैं। जान पड़ता है, कि एक सौ वर्षसे पहले यह यन्त्र वरङ्गारका खोल कदका बना होता है। इमों नहीं था। एक कठिन पदार्थका तन्वासन तथा काठका घना एक " भरतवीणा। डंडा रहता है। . उस डंडे का परी भाग सोहे के एक | भरतवीणा बहुत हालका यन्त है। यह स्पष्ट है, कि • पतले चरेसे मढ़ा रहता है। स्वरको गम्भीरताके लिए सदैवीणा औरकच्छपी वीणाके मेलले इसको उत्पत्ति हुई , इस यन्त्र के ऊपरो भागों और एक कद्दू लगा रहता है।। है। क्योंकि इसका खोल तो रुद्रवीणाके समान लकझोका इस यन्त्रकी ६ खूटियों में तीन पीतलके और तीन लोहे । बना रहता है। शिन्तु संडा, खूटियाँ, तारसंख्या, स्वर- के तार व्यवहत होते हैं। उन तीन पीतल के तारों में एक बन्धन, सारिकाविन्यास तथा धारण और वादन-प्रणाली गन्द्रसप्तको पज में, एक गान्धार, एक पंवम एवं लोहके | कच्छपी पीणाको तरह होती है। इसमें विशेषता इननी तीन तारों में एक मध्यसप्तको पड़ा और दो पंचम स्वरमें हो है, कि इसका एकमात्र नायकी तार लोहे का बना वांधे जाते हैं। इस यन्त्र में सारिकाप नहीं रहनी । इसको | होता है, दूसरे दूसरे प्रधान तार धातुओके धने नहीं धारण और वादनक्रिया रुद्वीपाकी धारण और वादन- होते, वहिक उनकी जगह तांत ही प्यबहन होतो । फियाकी भनुरूप होती है । यह यन्त्र और यन्त्रों को अपेक्षा तुम्बुरू वीणा। आधुनिक जान पड़ता है। मालूम होता है, कि महती इस वीणाका खोल कह का बना होता है। इसमें फच्छपी और रुद्रयोणाके संयोगसे इस योणाको उत्पत्ति एक काठका इंडा, चार खूटियां और मजबूत काठका धना एक तन्नासन रहता है। इस मोणाम दो लोहे के मुरबहार। और दो पीतलक सिर्फ चार तार ध्याहन होते हैं। इन अगर खूब गौर करके देखा जाय, तो सुस्यहार और | चारों तारों में लोहके दो तार मध्यसप्तकके पढ़न, कच्छपा घोणा पाएसपने एक दो यन्त्र है। सिर्फ अन्तर। पोतलका एक मन्द्रसप्तक पढ़ा और एक पञ्चम सरगें इतना है, कि सुरवहार इंडे भीर एक लकड़ी का टुकड़ा बांधा जाता है। इस यन्त्रका डंडा दाहिने हायको सना. लगा रहता है तथा उसमें कई एक छोटी छोरो खूटियां। मिका और अंगूठेसे पाड़ कर एवं मध्यमांगुलीसे गाघात लगी रहती हैं एवं उन सब छोटो छोटो खूटियोंम | देकर इसकी चादनक्रिया सम्पन्न होती है। इसमें सारि- पोसलके तार पधे रहते है। इन तारोको पादक अपनो कापं नहीं होती एवं जो तार जिस स्वरमें भावद्ध रहता है, _rot, XXI. 27