पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/१५५

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' वामाचार : - पञ्चतत्य (मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन ) इस । अन्तर्याग साधनमें प्रवृत्तं वोराचारी या यामाचारो पञ्च मकार और खपुष्प (रजस्वला स्त्रोके रज) द्वारा कुल मद्यमांसादि भगवतीको भर्चना करते हैं। कुलायमै स्त्रीको पूजा तथा वामा हो कर पराशक्तिकी पूजा करनी. | ऐसे साधकको देवीका प्रिय कहा है। यहां तक कि कुल होती है। इससे यामानार होता है। जो यामाचारो हो, शास्त्रकारोनि सभीको मद्यमांस द्वारा पूजा करनेको विधि घे इसी विधानसे कार्यादि करें। ब्रह्मवैवर्तपुराणक / दो है,- प्रकृतिखएडमें लिखा है, कि जो इस आचारके अनुसार "शवे च वैध्याये शाश्वे सौरे च गतदर्शने । चलेंगे, उन्हें नरक होगा। बौद्ध पाशुपते सांख्ये मते कशामुखे तथा ॥ चारों वेदमें पशुभाव प्रतिष्ठित है अर्थात् घेद-विहित सदसवामसिद्धान्त दिकादियु पात्र ति। आचार या वैदिक-आचार हो तान्त्रिक मतसे पश्वाचार | दिनानिपिशिताम्याञ्च पूजन विफल भयेत् ॥" है तथा वामादि जो तीन माचार हैं ये दिव्य और घोर- (कुलाणंय) भावमें प्रतिष्ठित हैं अर्थात् पामादि जो आवार हैं | कुलार्णवर्मे यह भी लिखा है, कि सुरा शक्तिस्वरूप, दिश्य और धीराचार है। आचारों में वेदाचार श्रेष्ठ, मांस शिवस्वरूप और उस शिवशक्तिके भक्त स्वयं भैरव हैं । घेदाचारसे वैष्णयाचार तथा वैष्णवाचारमे शैवाचार, । स्वरूप हैं। शेवसे दक्षिणाचार, दक्षिणसे घामावार, घामसे सिद्धान्ता. । इस देशर्म वीरानगरो साधारणतः चफ पना कर चार और सिद्धान्तसे कौलाचार श्रेष्ठ है। उपासना करते हैं। चक्रनिर्माणको प्रणाली इस प्रकार वामाचारके मतसे मद्यादि द्वारा देवीको मर्चना करनी है-साधकगण चक्राकारमें वा श्रेणीकमसे अपनी अपनी होती है सहो, पर यह सोंके लिये उचित नहीं है। ब्राह्मण शकिके साथ ललाटमें चन्दनका प्रलेप दे कर युगक्रमसे घामाचारी हो कर देयोको मद्यमांस न चढ़ायें और न भैरव-भैरवी भायमें बैठे। घे दलमध्यस्थित किसी स्त्री- स्वयं सेवन करें। को साक्षात् काली समझ कर मद्यमांसके साथ उसको कुलस्रांको पूजा, मद्य मांसादि पञ्चतत्त्व और खपुष्प पूजा करें। कैसो स्रोको इस प्रकार पूजा करनी होतो का व्यवहार वामाचारके प्रधान लक्षण हैं. मद्याद है, तन्त्र में यों लिखा है:- दान गौर सेवन वामाचारियोंका प्रधान कर्त्तव्य है। इस- | "नटो कापालिकी वेभ्या रजको नापितानना। फे बाद वामास्वरूपा हो कर परमाशक्तिको पूजा करनी ब्राह्मणी शूद्रकन्या च तथा गोपाप्तकन्यका ॥ होती है, नहीं करनेसे सिद्धिलाभ नहीं होता। मालाकारस्य कन्या च नवकन्याः प्रकीर्तिताः ।, __ रातको छिप कर फुलक्रिया और दिनको वैदिक विशेषवं दग्धयुता सर्या एव फक्षामना ॥ फिया करनेका विधान है। वामाचारी कौलगण चिारूप रूपयौवनसम्पन्ना शोलसौभाग्यशालिनी। पुष्प, प्राणरूप धूप, तेजोरूप दोप, वायुरूप चामर मादि . पूजनीया प्रयत्नेन वतः सिद्धिर्भवेद्भुषम् ॥"1" कल्पित उपचार द्वारा मान्तरिक साधना करते हैं । इसका (गुप्तसाधनतन्त्र १म पटन) नाम अन्तर्याग है। पटचक्र-वेद इस अन्तर्यागका प्रधान ..* तन्यको यह व्याख्या ईसाई धर्मशास्त्र यादविलमें भी है। गा है। षटचक्र देखो।

शात लोग जिस प्रकार शिवको मास और शक्तिको मद्य कहते

है उसो प्रकार रोमन के यशिक ईसाई लोगोंने भो यीशु-सृष्टके

  • पनत्व खपुष्प पूजयेत् कुलयोपितम् ।. .

रकका मध स्योकार किया है। ..पामापारी भवेचा थामा मृत्वा यभेत् पराम् ॥" __ + रेवतोतन्त्रमें चपडाली, पवनी, बौद्ध, रजकी आदि चौसठ (भाचारमेदवन्ध). प्रकारको कु मस्त्रियोंका उरलेख है। निरुत्तरतन्त्रकारका बहना - "म' मांसच मत्स्यश्च मुद्रामधुनमैव च। है कि ये सब शब्द पर्यावधिक नहीं है, . उसके विशेष विशेष मकारपसाचैव महापातकनासनम् ॥" (श्यामारहस्य) | कार्यानुष्ठानके गुपशापक हैं। Vol, IXI. 36