पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/४९६

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विधिः ४१२ भी उसमें क्रियाका विधान है, यहां यह भङ्ग भारादुप.!., "प्रवृत्तिः तिरेयान सा चेच्छांतो यतश्च सा : ..... कारक पूर्वोक्त सन्निपस्योपकारक कर्म प्रधान फर्मका उप- ., तज ज्ञानं विषयस्तस्य विधिस्तज शनकोऽयया ॥ ... .. कारक तथा प्रधान कर्म उसका उपकार्य है। यह उप. . . . . . . . . (मुमाञ्जलि कारक उपकार्य माय वाफ्यगम्य है, प्रमाणान्तरगम्य !- विधियाफ्य सुन कर पहले ऐसा मालूम होता है, कि नहीं। शेपोक्त मारादुपकारक कर्मके साथ प्रधान फर्गका | यह कृतिसाध्य है अर्थात् यान करने पर किया जा सकता : ' उपकार्य'उपकारक भाव जो है, यह प्रकरणानुसार उन्नेय | है तथा उससे अभीष्ट फल प्राप्तिको भी विशेष सम्मा. . है। मीमांसा देखो। . . . . . : पना है, पद शान..हो जानेसे ये सव-विधिविहितकार्य करनेकी प्रवृत्ति होती है । इस शानका विषय जो है .. उल्लिखित प्रधान गौर अरविधिका अन्य प्रकार अर्थात् कार्यत्व और साधनत्य यही विधि है । यह . प्रविभाग दिखाई देता है, जैसे-उत्पत्ति, विनियोग, प्रयोग प्राचीन मत है। अपने मतसे उस साधनता सापक . और अधिकार। इनसे उत्पत्ति और अधिकार | : आप्त वाक्यको विधि कहा जाता है। . .. . . . . . प्रधान विधिक तथा विनियोग अङ्गविधिके अन्तभुक्त. गदाधर भट्टाचार्याने अपने तथा मीमांसक मतसे . है। "कर्मस्वरूपमात्रयोधकविधिवत्पत्तिविधिः" जो | |. घिधिका स्वरूप जो निर्णय किया है, यह इस प्रकार है- केवल फर्शव्य कर्मको वोधक है, वही उत्पत्ति विधि है। . "आश्रयत्वसम्बन्धेन प्रत्यपापस्थापितष्टसाधनत्वा- जैसे "अग्निहोत्र जुहोति" 'अग्निहोत्रहोमेनेष्ट' मायपेदि न्यितस्यार्थपरपदघटितवाफ्यत्व विधित्वम् ।" मोमां. स्यन विधी कर्मणः करणत्वेनान्पया' अग्निहोत्रहोम द्वारा सकर्फ मतसे,-"इएसाधनत्य कृतिसाध्यत्वञ्च पृथक अभीप्सित फलोत्पादन करे, इस उक्ति द्वारा अग्निहोत्र

विध्यर्थः ।" (गदाघर.) . .. ... ... ....

होम करना होगा, सिर्फ यही समझा गया। किन्तु उसमें . . जिस वाफ्यमें लिङ्गादि-प्रत्यप द्वारा आध्यत्वके किस फलकी उत्पत्ति होगी, इसका पता न चला, इस RAM TTति साधनयक्त और स्वार्थ कारण यह उत्पत्तिविधि है। "कर्मजन्मफलसाम्ययोः । पर (स्योय अर्थाष्यक्षक) पद विद्यमान रहता है वही धको विधिरधिकारविधिः कर्मजन्य फलभागिताको अव- अव विधि है। जैसे "स्वर्गकामो - यजेत ।" यहां यज-याग बोधक विधिका नाम अधिकारविधि है। जैसे "स्वर्ग- करना, लिङ्गधा 'ईत', प्रत्यय - करणाश्रय, कृत्याश्रय, . फामा यजेत" स्वर्गकामी हो कर याग करे, यहाँ पर खगे। चेष्टा वा यत्नशोल, दोनों के योगसे अर्थात् 'यजेत' के उद्देशसे यागकारोका फियाजन्य फलमपितृत्व प्रति-काल यमा प्रति यत्नशील। पन्न होता है, अतएव यह अधिकारविधि है । "अङ्ग यहां पर स्वर्गकाम व्यक्ति ही यागकरणाश्रय हुमा, मतपय । प्रधानसम्बन्धयोधकी विधिर्विनियोगविधिः" जो अङ्ग प्रत्यय द्वारा इस पदाश्रयत्व सम्बन्धमे उपस्थापित हुआ, कमैका विधायक है, यह विनियोगविधि है। जैसे- । तथा यह "स्वर्ग कायते" स्वर्गको कामना करता है, इस "मोहिभिर्यजेत" योहि द्वारा याग करे, "दध्ना जुहोति" व्युत्पत्ति द्वारा अपनो अपनी अर्थप्रकाशक गौर स्वर्गप्राप्ति 'दधि द्वारा होम करे, ये सब क्रियाप्रधान अग्निहोत्रके मङ्ग रूप इसाधनतायुक्त होती है ... शतपय "वर्गकामो बतलाये गये हैं, इस कारण वे विनियोगविधिमें निर्दिष्ट यजेस" यह एक विधियाफ्य है। मीमांसफादिक मतसे । हैं। "अङ्गानां झमयोधको विधिः प्रयोगविधिः" जिस | इष्टसाधनता गौर कृति (यन) साध्यत्वको पृथक् पृथक 'फमसे या जिस पद्धतिसे साङ्गप्रधान यागादि कर्म किया। विधि कहा गया है। जैसे "स्वर्गकामो यजेत" अर्थात् स्वर्गः 'जाता है, यह प्रयोगविधि है अर्थात् मङ्गों में किस प्रकारकामी वनो और याग करो, यह दोनों प्रकारको विधि है।

  • किस कार्याके या कौन कार्य करना होगा, यह प्रयोगविधि ,१४ यागोपदेशक ग्रन्थ, यह.प्रग्ध जिसमें यागयज्ञादि -

द्वारा जाना जाता हैं। ............. ... ... | का. विषय विशेषरूपसे लिखा है । १५ अनुष्ठान। . -- : न्यायके मतसे, पिधिका लक्षण इस प्रकार है- -१६ नियम ।। १७ व्यापार । १८ आचार। -१६ यक। . .