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विरागत्-विराट
विरागवत् (म. लि.) विरागः विद्यतेऽस्य विराग-मतुपः । मंग्या नहीं कर सकते । प्रतिलोमकूपरूप विश्यमें ब्रह्मा,
'माय । विरागविशिष्ट, पैराग्य युका
} विष्णु और शिवादि विराजमान हैं। पातालसे ब्रह्य-
विरागाई (सं० पु०) विराग-मई नीति अह-अच् । विरागः लोक पर्यन्त ब्रह्माण्ड उसी लोमका, विराजित है।
योग्य । पर्याय-बैरङ्गिक।
ब्रह्माण्डके यदिभागमें ऊपरको ओर चैकुण्ठ है। यहां
विरागित (स० वि०) विरागोऽस्प जातः विराग तारका. सत्यस्वरूर नारायण विद्यमान हैं। उसके ऊपर पांच
दित्यादितच् । विरागयुक्त, विरागविशिष्ट। सौ कोटि योजनको दूरी पर गोलोक है। यहां नित्य
विरागिता ( स० स्त्री० ) विरागिणो भावः विरागिन् तल । सत्पखरूप कृष्ण विराजमान हैं। इस प्रकार उस विराट-
सप। विरागोका भाव या धर्म, विराम।
पुरुषके प्रति लोममें सप्तसागरसंता सप्तद्वोपा घसु.
विरागिन (स०नि०) विराग अस्त्यथें इनि। विराग मतो है। उसके ऊपर स्वर्गादि तथा नारामणके साथ
विशिष्ट, वैराग्ययुक्त।
वैकुण्ठ और गोलोक विद्यमान है। एक समय इन
विराज { २० पु० ) विराट देखो।
विराटने ऊपरको 'ओर देखा, कि उस डिम्यमें केवल शून्य
विराजन् (२००) दोप्तिशाली, चमकदमकघाला।। है और कुछ मी नहीं है। भूखके मारे घे रोने लगे।
• विराजन (स० को०) विराज घुट। १शोमन, शोभित पाछे हागलाम करके उन्होंने परमपुरुष प्रमज्योतिःस्वरूप
होना। २ वर्शमान होना, मौजूद रहना । ३ बैठना।। कृष्णको देख पाया। नवान जलधरको सरह उनका वर्ण
'विराजना (हि० कि.) १ शोभित होना, प्रकाशित होना, श्याम है। दो भुजा है, पीताम्बर पहने हैं, हंस रहे हैं,
सोहना। २ वर्तमान होना, मौजूद रहना। ३ वैठना। हाथमे मुरलो है गौर घे भक्तानुग्रहकारक है। इस रूपमै
विराजमान (स.नि.) १ प्रकाशमान, चमकता हुआ। भगवान कृष्णने उस चालकको अपना दर्शन दे कर हंसते
२विद्यमान, उपस्थित । ।
हुए कहा, 'मैं प्रसन्न हो कर तुम्हें घर देता है कि तुम
विराजित (सं०नि०) वि.राजक्ता शोभित । २ प्रफा-1 भी प्रलय पर्यास्त मेरे जैसे छानयुक्त, क्ष पिपाशावर्जित
शित । - ३ उपस्थित, विधमान ।
और असंख्य प्रशाण्डके आश्रय हो। इस प्रकार पर दे
विरातिन (i० त्रि०) पिराजितं शोलमस्य विराम-णिनि ।। फर भगवान्ने बालककं कानों में पडक्षर महामंत्र पढ़ दिया।
दीतिविशिष्ट, प्रकाशशील, विराजमान!
यह विराटरूपी बालक भगवान्का स्तव करने लगे।
विराज्य (स० क्लो०) १ दाप्ति, समृद्धि। . २ साम्राज्य । श्रीकृष्णने उत्तरमे कहा, 'मैं जैसा है, तुम भी घसा हो
- विराट ( स० पु०) पि-राज दीप्तो किप। १क्षत्रिय । हो, असंख्य ग्रहाका पात होने पर भी तुम्हरा पात नहीं
२ ब्रह्माका वह स्थूल स्वरूप जिसके अन्दर अखिल विश्व होगा। मेरे ही मशसे तुम प्रति ग्रह्माण्ड में क्षद्र विराट
है अर्थात् सम्पूर्ण विश्व जिसका शरीर है। ब्रह्मवैवर्त-हो जा। तम्हारे हो नाभिपद्म विश्यन्त्रप्टा ब्रह्मा उत्पन्न
पुराणके प्रतिखएडमें इस प्रकार लिखा है-
होंगे, ब्रह्माके ललारसे शिवके मशमें सृष्टिसञ्चारणार्थ
___एकार्णवसलिल ( क्षीरसमुद्र । में ब्रह्माकी आयु एकादश रुद्र होंगे, उनमें कालाग्निरुद्र एक विश्वसंहार-
पर्यन्त एक डिम्ब पहता था । पोछे उस डिम्बके फूट जाने कारो होगा। विश्वके पाता विष्णु भो इस क्षुद्र विराटके
· पर उसमें शतकोटि सूर्यको तरह उज्ज्वल एक शिशु मंशमें आविर्भूत होंगे। तुम ध्यान मेरो कमनीय
निकला। शिशु दूधके लिये कुछ समय से उठा । उनके | मूर्ति सदा देख पायोगे ।" इतना कह श्रीकृष्ण
पितामाता नहीं है, जलमें उनका वास है। जो प्रामाण्डके | अपने लोकमें था कर ब्रह्मासे घोले, 'महाधिराधके लेाम-
नाथ है ये अनाधवत् मालूम होने लगे। वे स्थलसे स्थूल फूपमें क्षद्र विराट विद्यमान है, सृष्टि करने के लिये तुम
• तम हैं, महाविराट् नामसे प्रसिद्ध है। ये होअसंख्य - इनके नाभिपद्ममें जा कर उत्पन्न हे ! हे महादेय !
' विश्वके आधार प्रत.महाविष्णु है। उनके प्रति लोम. तुम भी अंशक्रममें ब्रह्मललाटसे जन्म लो।' जगन्नाथका
__ . ।' कूपमें निखिल विश्व अधिष्ठित हैं। स्वयं कृष्ण भी उनको. ) . इस प्रकार आदेश सुन कर प्रहां और शियने -प्रस्थान
. . vol xxI 124, ..
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/५७१
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