पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६४४

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, विवाह महाभारतमें क्षेत्रज पुत्रों के दहुनेरे उदाहरण दिखाई । पिन्तु याज्ञवल्क्य पिने और अगे बढ़ कर यह . देते हैं। महाभारतके प्रधान प्रधान कई नायक क्षेत्रज | व्यवस्था दी- पुन हो कर भी जगत्में बड़े ही आदत हुए हैं। समय ___अक्षता वा क्षता वापि पुन : संस्कृता पुनः। .. पा कर यह प्रथा हिन्दू समाजसे विदा हो गई। पादके - इससे पुनभू नारियों का प्रसार और भी बढ़ गया। स्मृतिकारारोंने क्षेत्रज पुत्रोंके अङ्गमभाधको खर्च करनेको | अक्षता हो क्षता ही हो-फिरसे संस्कार होने पर वह वड़ो चेष्टा को है। फलतः इस समय अब क्षेत्रज पुत्रो. पुनर्भू कही जायेगी। इस संस्कारके फलसे कामनियों'. . . त्पादनको प्रथा दिखाई नहीं देती। के व्यभिचारमें बहुत रुकावट हुई थी; भ्रूणहत्या भी पुन । कम हो गई थी। किन्तु पौनर्भय भर्तार और पुनर्भू पोनर्भय पुत्रका विषय विधवाकै प्रसङ्ग में आलोचित नारियों के समाज में निन्दनीय होनेसे लोग इस पत्रको हुआ है सही; किन्तु यहां उसके सम्बन्ध में कुछ कहना अकण्टक या प्रसरतर पथ किसी समयमें नहीं समझते आवश्यक प्रतीत होता है। हम पुनर्भूको व्यभिचारिणो थे। इसके बाद शास्त्रकारों ने समाजमें पुनर्भू या हो समझेगे और उन्हें ध्यभिचारिणियोंकी श्रेणोमे गिर्नेगे।। पौनर्भय पतियों की संख्या कमशः क्षोण देख कर इस पयोंकि मनुने कहा है- विधिको समूल नए कर दिया। सम्भवतः उनके चित्त "या पत्या वा परित्यको विधवायास्वयेच्छया। ऐसी धारणा उत्पन्न होनो असम्भव नहीं, कि इस... उत्पादयेत् पुनभू त्या स पौनय उच्यते ॥ विधानसे विधवा रमणियों के ब्रह्मवर्या के पुण्यतम पध. इस समय सामाजिक रति के अनुसार पुनभू-स्त्रीके को घगलमें व्यभिचारका प्रलोभन रखा गया है। मतपय प्रहण करने की प्रथा नदों रह गई। यदि कोई पुरुष ! उन्होंने इसका जड़ उखाड़ना हो कर्त्तव्य समझ लिया स्वामोत्यका या विधवाके साथ सहयास करे, तो यह | था। चाहे जिस तरह है। इस समय समाजमें . समाजमें निन्दनीय गिना जाता है या व्यभिचारो कहा | पुनर्भू प्रथाका अस्तित्व नहीं दिखाई देता।" .. जाता है। असवर्ण विवाहनिध। चोन हिन्दू समाजमें इस तरह कई कार्य ध्यभिचार | ___ इसका भी प्रमाण मिलता है, कि ब्राह्मग शूद्रा जान फर भी समाजमें इन सब प्रथाओंको दूर करने का | त्रियों से भी कामतः सन्तान उत्पन्न करते थे और यह विशिष्ट उपाय प्रकविरत नहीं हुआ था। जो सब दोप, सन्तान पारस कहे जाते थे। ब्राह्मणे का यह दुETA मानवचरित्र के स्वभावसिद्ध हैं, समाजसे बिलकुल जड़ गुप्तरूपसे चलता था. फिर भी उनके द्वारा उत्पन्न पारशव उखाड़ फेंकनेमें कठिनता अनुभव कर शास्त्रमाने इन। सन्तान इस समय उस पापका साक्षी धग समाजके सय व्यभिचारोंको उच्छलता या विशृङ्खलतामें परिणत | मामने नहीं दिखाई देते। 'मन्यादि 'पयोंके समयमें न होने दे कर कुछ अंशमें नियमित करनेको चेष्टा को | ब्राह्मण, क्षत्रिय, घेप और शंकी कन्याओंसे भी विवाद थी। इसीलिये मनुने अझतयानि विधवा परित्यक्ता | कर लेते थे। किन्तु इस समय यह भी विधिविधान रह या पतित्यागिनो व्यभिवारिणियों को दूसरे पुरुपके ग्रहण | कर दिया गया है। आदित्यपुराण और वृहन्नारवीय करनेके समय संस्कारका विधान किया। उद्देश्य यह पुराणको दुहाई दे कर आज पालके स्मार्स ले.गांने था, कि इस तरह के संस्कारके फलसे भ्रूणहत्यादि निया अन्याम्प युगों में जो सय प्रथाये प्रचलित घों, उन सधर्म रित होगी तथा । व्यभिचारफे घेरोक प्रसारमें बाधा | कई प्रथा तोड़ दो हैं, उनमें असपर्णा कन्या विवाद पड़ेगा। मनु भगवान्ने फंवल अक्षयोनि कन्याओंके । भी एक है। फलतः वादक शास्त्रकार क्रपशः एक पटनी : सम्बन्धम इस तरहकी विधि कही थी। जैसे- . व्रत ( Monogamy) के पक्षपाती बन गये थे तथा कौल "सा घेदक्षतयोनिः स्याद्गतप्रत्यांगतापि वा। । । व्यभिचारको बन्द करनेमें वदारिकर हुए थे। यह इनके गे । Bा पुप : महति ॥” (१७६ ) | प्यास्थित विवाहविधानको आलोचना करनेसे पट