• विश्वो..
हैं, भूरितमाः (केवल माहारादिमें निष्ठायान) है । प्राण- "याऽस्य तनुरासीत् :तामुपावरत् । सा तमिस्रामवत्"
(गध प्रहणके -ही-प्रयोजनीय, विषयों में ज्ञानशाली)। (शु ति), उनका शरीर भी घोर तमसे आच्छन्न हुआ।
हैं और भवेदी (मनोभाव..यापन करनेमें असमर्थ या इसके बाद उनसे उत्पन्न यक्ष, रक्षा,आदि उक्त क्षत्तृष्णा.
दो_नुसन्धानशून्य) है। इसके सम्बन्ध में श्रतिमें भी। समुत्पादक रालिको प्राप्त होनेसे ये अति क्षुधासृष्णासे
उल्लेख हैं: यया-"अधेतरेपा : पानामशनापिपासे | कातर - हुए और अन्य कोई माहार्या द्रव्य न पा फर
गाभिमान न विक्षात पदन्ति न विशात पश्यन्ति न | किंकर्तव्यविमूढावस्थामें आहाराम्चेपणमें प्रमाको पा
विदुःश्वस्तत न लोकालोकाविति।" :
कर उनको भक्षण करनेके मानससे उनके प्रति दौड़े और
• उक्त, तिर्यक् जाति एकशफ -(जोड़ा खुर) विशिष्ट | कहने लगे, कि "मा रक्षतेनं जाय" तुम लोग इसको
गर्दभ, अश्व, श्वतर (शुद्राभ्य) पे तीन तथा गौर, शरभ | छोड़ना नहीं खा जाना। प्रजापति स्वयं यह बात सुन
और धमरी (मृग जातीय) ये-तीन कुल छः, तरहकी, कर चिल्लाने लगे, कि "मा मा अक्षत रक्षत अहो मे यक्ष-
गो, पारो, भैस, शूकर, गयय (नोलगाय या धन्यगाय), रक्षांसि! प्रजा यूयं वभूविथ" हे यक्षरक्षगण | तुम लोग
कृष्णा, रुख (ये दो मृगजातीय), भेडे और ऊंट, पे द्विशफ मेरे सन्तान हो, मुझसे हो उत्पन्न हुए हो, मतपय मुझ-
(द्विखण्डित खुर ) विशिष्ट नौ प्रकार मौर कुत्ते, स्थार को भक्षण मत करो, रक्षा करो। इस समयसे जिन्होंने
हुंडार, व्याघ्र, दिल्ली, . पारगोश, शजार, सिहा पानर, म रक्षत" छोड़ना नहीं, यह बात कही थी, वे राक्षस
इस्ती, कूर्म और गोधा-पे द्वादश प्रकार पञ्चनखी और जिन्होंने "जक्षध्वं" खा सालो कहा था, घे यक्ष कह-
(पञ्च गणाविशिष्ट ) जन्तु और: मकर फुम्भीर आदि लाने लगे। देवयोनि प्राप्त होने पर भी तमोबहुलावस्था
जलजन्तु तथा फङ्क गृधादिः खेचर-पे दोनों तरह के उत्पन्न होनेसे तिर्यगादि तामस सृष्टिके मरतर्भूत माने
जन्तुको मान लेनेसे सब २८ प्रकारके जन्तु निर्दिष्ट | जाते हैं.. ..
हुए हैं। ..... ..... . .... . इसके • वाद : सत्त्वगुणवहुलायस्पामें । धोतमान
(३) नरदेह रजोगुणाविषय है, कर्गतस्पर, दुःख (सात्विक भावापन्न) हो जो उत्पन्न हुए, उन्होंने अपनी
में भी सुखाभिमानो और अर्वास्रोता. अर्थात् इनके अपनी प्रभासे प्रतिमान होनेके कारण जगत्मे देवता
आहाय्य द्रव्य (अन्नादि), अदुळ (मुख) से अधः (निम्न- नामसे प्रसिद्ध है। सर्वोच्च पदवी प्राप्त को। इस समय
कोष्ठादिमें) सञ्चारणपूर्णक शरीर पोपण करते हैं 1.; ग्रह्माकी जो आभा फैली थो, उससे दिनकी :उत्पत्ति
सिवा इनके देव, दानव, गन्धर्वा, अप्सरा, यक्ष, । होनेसे देवतागण उसमें पैठ कोड़ाकौतुक करने लगे।
रक्षः, भूत, प्रेत, पिशाच, सिद्ध, विद्याधर, किन्नर आदि ,इसके बाद "स जघनादसुरानसृजत" (श्रुति) प्रजा-
देवयोनिप्राप्त और सनत्कुमारादि: उभयात्मक ( देवत्य ! पतिने अपने घेसे अतिलोलुप स्त्रीलम्पट : असुरों की
और मनुष्यत्व ध्यपदेशमें उभय लोकान्तर्गत) कितने ही! सृष्टि की। ये अत्यन्त मैथुनलुब्ध ही आत्मतृप्तिवरि-
लोकभी इस विश्वग्रह्माण्डमें, सृज्यमान हैं। संक्षेपतः । तार्य करनेके दूसरे उपाय न पाने के कारण उन पर ही.
इनकी भी सृष्टिका क्रम नीचे दिया जाता है। . .; उसके लिये दौड़े। यह देख ब्रह्मा मन ही मन : हसने
प्रजापति ब्रह्माने सहस्रार्फ ति, ब्रह्माण्डमाण्डोदर लगे। किन्तु निर्लन असुरोमो मावको अच्छा : न देख
नारायणके नाभिकमलसे समुभूत हो कर उन्हों के आदेश कद और भयभीत हो कर यहांसे ये मागे और विष्णुके
से अपनी प्रमाप्रतियोगिनी छाया द्वारा तामिस्र, अन्ध- पास जा कर. उन्होंने सारा वृत्तान्त यथायथ 'भाषम
तामिन्न, तमा, मोह और महातमः ग्रे पञ्चपर्गरूपी अविद्या., महा। विष्णुने सब दातें जान कर आदेश दिया, कि
की सृष्टि की। इस पचपनको सृष्टि होनेसे जगत् निविड़ : तुम,मावान्तरमें अबस्थान करो, इसके अनुसार
अन्धकारमय भत्तृष्णा समुत्पादक रतिरूपमें परिणत:, ("साहोरानयोः सरिधरभवत्" (धुति) "सा तेन विस्था
हुआ और घे (ग्रहा) भी उसके साथ मिल गये अर्थात् । तनुः सायन्तनी सन्ध्या यभूय') ग्रहाके शरीर परि
Vol. .XXI. 154
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/६९९
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
