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विष
स्थावर विघका कार्य।
। उल्लेम्न किया जाता है। निद्रा, तंद्रा, क्लान्ति, दाह, पोक,
'आय स्थावरविषके साधारण कार्यों के सम्बन्धौ |
रोमाञ्च, शोथ और अतिसार ये कई जङ्गम विपके माघा.
कुछ कहा जाता है। मूलबिपका कार्य-यह विष शरीरमें
रण कार्य हैं। इन सब जङ्गम घिमें सर्प विप ही
प्रषिष्ट होने पर दण्डेसे मर्दन करनेकी तरहको घेदना, | तीक्ष्णतर है। इससे पहले सर्पविषका उल्लेख किया
मोह और प्रलाप होता है । पत्र-विपका कार्या-जुम्भा जाता है। सर्व जाति चार भागांमें विभक है। यथा-
. .(जभाई), कम्प और श्वास ( दमफूलना )। फलविष भोगा, मण्डली, राजिका और द्वन्द्वरूपी। भागी म से
___“का कार्य-अण्डकोपमें शोध अर्थात् वैजेका फूल जाना। फणयुक्त, मण्डलीस मण्डलाकार चकशाली, रोजिका
दाह और अन्नभक्षणमें अनिच्छा होना । पुष्पचिपका
श्रेणोके सर्पका गात लम्बी रेखाओंसे घिरा रहता है और
'कार्या-उलटी होना, उदराध्मान और मूर्छा। त्यक् द्वन्द्वरूपी सर्पमिशित रूपधारी होते हैं। ये सप कमसे
सार और निय्यांस विपका कार्य-मुम्नमें दुर्गन्ध, देह में | वातात्मक, पित्तात्मक, कफात्मक और दिदापात्मक हैं।
कर्कशमा, शिरमें पीड़ा और कफनाव होना। क्षीरविष फणयुक्त सर्प बोस तरहका होता है। मण्डलो सर्प
का कार्य- मुखमें फेन आना, मलभेद और जिहाका नाना रॉस विलित, मोटे भौर धोरगामी होते हैं। पे
गुरुत्व । धातुयियका कार्य-हृदय, घेदना और छः प्रकारके होते हैं। अग्नि और धूपके उत्तापसे इस-
'तालूमें दाहः। उल्लिखित नौ स्थावर विषोंसे प्रायः का विष घेगवान होता है । राजिका सर्प स्निग्ध तिर्यार:
ही कालान्तरमै प्राण विनष्ट होता है। स्थायर गामी और नाना रङ्गकी रेखाओंसे रेखान्वित हैं। पेमा
विपोंमें दशवां कन्द विप है-यह उप्रवीर्यसम्पन्न है। छः प्रकारके हैं। इसके सम्बन्धमें 'सर्पविष' शब्द देखो।
यह विप तेरह तरहका होता है। इन सब विषों-
सके काटे हुए स्थानका लक्षण ।
को पीछे कहे गये दश गुणायित समभाना होगा। पिप भोगी जातीय सो के काटनेसे काटा हुमा स्थान
स्थावर, जलम या कृत्रिम चाहे किसी तरहकापियों न हो, काला हो जाता है भीर रोगी सब तरहसे यात विकार.
• यह दशगुणान्वित होनेसे शीघ्र ही प्राण नाशीकरता है। विशिष्ट हो जाता है। मण्डली सके काटनेका या
.. उन दीके गुण इस तरह हैं-यक्ष, उष्ण, तीक्ष्ण,सूक्ष्म, संसनेका स्थान पीला, शथियुक्त और मृदु होता है और
माशुझारी, व्यवायी, 'विकाशी, विशद, लघु और रोगी पित्तविकारग्रस्त देखा जाता है । राजिका जातीय
अपाकी।"
. . .
सके दंशन दटस्थान स्थिर, शोधयुक्त, पिच्छिल,
उक्त दशगुण युक्त विष, रुक्ष गुणम वायु और उष्ण | पाण्डवर्ण, स्निग्ध और अतिशय गाद रक्तयुक्त होता है
'गुण पित्त और रक्तको प्रकुपित करता है। तीक्ष्ण
तथा रोगी सब तरहसे कफविकारग्रस्त होता है।
गुणमें बुद्धिभ्रंश और मवन्धन छेदन करता है। सूक्ष्म | 1. विणसित . शस्त्रापावके क्षक्षण । ।
गुणमें शरीर के अवयव, प्रविष्ट हो कर उसे विकत कर
शन द्वारा विषलित शस्त्रसे.आघात पाने पर मनुष्यका
देता है। माशुकारी गुण होने से यह सब कार्य शीघ्र
वह क्षतम्थान शीघ्र ही पक जाता है। क्षत स्थानसे
सुसम्पन्न होता है। व्यवायी गुणमें प्रकृति मीर विकाशी रक्तस्त्राव होता है और सहा मांस गिर पड़ता है। क्षत
• गुण दोष, धातु और मल विनष्ट करता है। विशद स्थान वारंवार पकता है और काला तथा पलेदयुक्त
गुणमै भतिशय विरेचन उत्पन्न करता है। - पाकी होता है। फिर रोगोको पिपासा, अन्तर्दाद, यहिद
गुणमें अजीर्ण होता है और लघुत्य गुणमें यह दुश्वि! और मूर्छा होती है। अन्य प्रकारसे उत्पन्न क्षत स्थान
कित्स्य हो जाता है । । ।
में विषप्रद होने पर भी ये मवलक्षण दिखाई देते हैं।
जनम: विके अन्नय।
• राजा महाराजाओंक पद पद पर शान होते है।
. 'पहले म्पायर विपके' माधारण कार्यों का उल्लेख । शन प्रायः ही उनके भोजनमें गुप्त रूप पिप मिला
किया गया है। अब हम विपके साधारण कार्यो का देनेको चेष्टा करते हैं। पुद्धिमान, इङ्गिताल, चिकित्सक
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७३९
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