विष्टिकर-विष्ठा ..
भद्रा होती है। यह विटिभद्रा समो प्रकारके शुभ -"ब्राह्म मुहत उत्थाय मूत्रपुरीपोत्सर्ग' कुर्यात्,
कायमें वर्जनीय है अर्थात् इसमें यात्रा, संस्कारादि कार्य | दक्षिणा मुखो राती दिया चोदछमुख सन्धयोश्च ।' ..
या देवकर्म नहीं करना चाहिये , किन्तु इसके पुच्छमे
(विष्णुरहिता६०)
सभी कार्यों का मङ्गल होता है। (विष्टिभद्राके शेष | . विष्णुसंहितामें लिखा है, कि ब्राह्ममुहर्रा ( रात्रिक - ...
तीन दण्डका नाम 'पुच्छ' है।)
पिछले पहरके अन्तिम दो दण्ड ) में उठ कर रातको
पिरिभद्रास्थिति-मेष, वृष, मिथुन और वृश्चिक | दक्षिणमुख, दिन तथा प्रातः बार सायं दिनरालिक
लग्नमें यदि विप्टिभद्रा हो, तो यह विटिभद्रा स्वर्गलोकमें
दोनों सन्धिकालमें उत्तरमुख हो कर विष्ठाका त्याग .
वास करती है। कुम्भ, सिंह, मीन और कर्फटराशिमं । करना होता है। घासस ढकी जमानम, जात हुप पेत. :
पृथिवी पर तथा धनुः, मकर, तुला और कन्याराशिमें
गे, यक्षीय वृक्षछायाम, खारी जमीनमें, शाद्वलस्थानमें,
पातालमें वास करती है। विएिभद्रा जब जहां रहती है। प्राणियुक्त स्थानमें, गर्त में, वल्मीक, पथमे, रथ पर,
तव यहीं पर स्वमायसिद्ध अशुभ फल देती है। शास्त्रमें | दूसरेको विष्ठाके ऊपर, उद्यानमें, उद्यान या जलाशय
यह भी लिखा है कि जिन राशियोंमें यिटिभद्रा पृथिवी पर किनारे विष्ठात्याग निषिद्ध है।
पास करती हैं, उस विष्टिभद्रा शुभकार्यादि फरना मना
____गङ्गार, भस्म, गोमय, गोष्ठ, ( गाय चरनका स्थान )
है। इसके सिवा जिन सब राशियों में स्वर्ग गौर पाताल..
आकाश और जल आदि स्थानों में तथा वायु, अग्नि, .'
में वास करती है, उस पिप्टिभद्रामें सभी कार्य किये जा
चन्द्र, सूर्य, स्त्री, गुरु तथा बाह्मणके सामने अनवगुण्ठित :
सकते हैं।
मस्तफसे विष्ठात्याग न करे। विष्ठात्यागके बाद ढेले
विटिकर ( स० पु०) १ पौड़गफारी, अत्याचारी।
वाटसे गलको मार्जन कर लिङ्ग पकढ़ते हुए उठे।
२ प्राचीन कालके राज्यका पद पा सैनिक कर्मचारो
पीछे उद्धत जल और मिट्टोसे गन्धलेपक्षयकर शीम, . !
जिसे अपनी सेना रखने के लिये राज्यको ओरसे जागार
करे । इसके बाद मिट्टीको पेशायके द्वारमें एक बार, मल- ::
द्वारमें तीन बार तथा वाए हाथमे दश यार, दोनों हाथमें
मिला करती थी।
सात घार और दोनो तलयेमे तीन तान धार लगाये ।
विष्टिकृत् ( संपु० ) अनिकारक, विष्टिकर।
यह नियम गृहस्पफे लिये है। यति वा प्राचारोफे
विष्टिर ( स० स्त्री०) विस्तीर्ण। (ऋक् २।१३।१० )
लिये इसका दूना पताया गया है। गन्ध नहीं रहे, यही
विधिवत (स. क्लो०) प्रतविशेष। (भविष्यपु.)
शौचका उद्देश्य है, किन्नु जलादि द्वारा गन्ध जाने पर ..
निष्टोमिन् (स० त्रि०) क्लशयुक्त, विशिष्ट।
भी उक्त प्रकारसं मृत्तिकाशीच अवश्य करना होगा।
(शक्लयजु० २३।२६)
. . (विष्णुसंहिता ६० अ०)
विष्टुति ( स० स्त्रो०) विविध प्रकारसे स्तुति, नाना
आहिकतत्त्वमें लिखा है, कि उत्थान स्थानसे नीर
प्रकारका स्तष । (शुक्लयजु० १६२८)
फेकने पर यह तीर जहां जा कर गिरे, उतना स्थान,वाद , .
विष्टल (सं० को०) विदूरं स्थल (विक शामिपरिभ्या स्थालस्य। देकर विष्ठात्याग करना चाहिये । मायादी जगहफे ।
.पा ८३।६६) इति पत्वं । विदूरस्थल, दूरवत्तों स्थान ।
- समीप विष्ठामूत्रत्याग करना उचित नहीं। विष्ठा और ::.
विष्ठा (स'० स्त्रो०) यिविधप्रकारेण पिष्ठति उदरे इति यि. मूत्रका घेग रोकना न चाहिये । रोकनेसे . नाना प्रकारफे .
स्था क, उपसर्गादिति पत्वं । पुरीष, मैला, गुह, पात्राना रोग उत्पन्न होते हैं। विष्ठा और मूत्रत्यागके समय
विविध प्रकारसे यह उदरमें रहती है, इसीसे इसका नाम . ,यज्ञोपयोतको दाहिने कान पर रखना चाहिये। मालकी
विष्ठा हुआ है। पर्याय--चार, अवस्कर, शमल, शत्, तरह गले में लटकानेका भी विधान है। जूता. और ..
गुथ, पुरीप, वनस्क, विट, वा, अमेध्य, दृर्या, कल्ल, खड़ाऊ पहन कर विष्ठा और मूत्रत्याग करना मना है।
. सल, फिट्ट, पूतिक! .( राजनि०) . ... . ..विष्टा और मूत्रत्यागके समय जिस जलसे शौच ...
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७८६
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