पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/७९७

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६६५ विष्ण स्वमी और रति ; पत्राप्रममूहमें पूर्वादिक्रमसे चक्र, शङ्ख, अड गुष्ठ द्वारा अनामिकाका अग्रभाग स्पर्श कर "चों गदा, पद्म, कौस्तुभ, मूसल, ग्वाह ग, धनमाला, उसके नमः पराय अन्तरात्मने अनिरुद्धाय नैवेद्य कल्पयाति' बाहर अग्रभागमें गयड, दक्षिणमें शङ्कनिधि, वाममें , कह कर नैवेद्य मुद्रा दिखावे तथा मूलमत्रका उच्चा. पदुमनिधि, पश्चिमम ध्वज, अग्निकोणमें विघ्न, नैन- रण कर 'अमुकदेवता तर्पयामि' इस मन्त्रसे ४ यार - में आर्या, यायुकोण में दुर्गा तथा ईशान सेनापति इन स नर्पण करे। बाद में 'अमुक देवतायै पतझलममृता- मवकी पूजा करके उसके बाहर इन्द्रादि और वनादिकी। पिधानमसि' इस मवसे जलदान करनेके बाद माचम- पूजा करे । अनन्तर धूप और दीप दानके वाद यथाशक्ति | नोय आदि देने होंगे। • नैवेद्य यन्तु निवेदन करनी होती है। । विष्णुको नैवेद्यके वाद साधारण पूना-पद्धतिके विष्णपूजामें नेवैद्य दानमें कुछ विशेषता है। गौत- अनुसार विमजन कर मभी कार्य समाप्त करे । सोलद । मोय तन्त्रके मतसे स्वर्ण, ताम्र या रौप्य पात्रमें अथवा : लास्न जप करनेसे विष्णुमत्रका पुरश्चरण होता है। पदुमपत्र पर विष्णको नैवेद्य चढ़ाये । भागमालुममें । "विकारमदं प्रजपेन्मनुमेनं समाहितः । लिखा है, कि राजत, कांस्य, तान या मिट्टीका वरतन सद्दशांश सरसिजेजुहुयान्मधुराप्लुतैः ॥" ( तन्त्रसार ) अथवा पलाशन विष्णको नैवैध चढ़ानेके लिये स्मृतिग्रन्यादिमें जो विष्ण पूजाका विवरण दिया उत्तम है। . गया है, विस्तार हो जानेके भयसे यहां उसका उल्लेख जो हो. ऊपर कहे गये किसी एक पात्रमें विष्णका । नहीं किया गया। भाकितस्य आदि प्रधे में उमका नैवेद्य प्रस्तुत कर देवोदेशसे पाद्य, अर्ध्या और आच । सविस्तर विवरण आया है। मनीय दानके वाद 'फट' इस मूलमन्त्रसे उसे प्रोक्षण' शिवपूना में शिवको अष्टमूर्ति की पूता करके पोछे चक्रमुद्रामै अभिरक्षण, 'य' मन्त्रसे, दोषोंका संशोधन, विष्णकी अष्टमूर्ति को पूजा करनी होती है। विष्णकी मन्त्रमे दोपदहन तथा पं' गन्त्रसे अमृतीकरणा कर, अष्टमूर्ति के नाम ये हैं-उप्र. महाविष्णु, ज्वलत, मम्प्र- आठ वार मूल मंत्र जप करें । पोछे 'व' इस धेनुमुद्रामे : तापन, नृसिह, भीषण, भीम और मृत्युञ्ज। इन अमृतीकरण कर गन्धपुष्प द्वारा पूजा करनेके वाद.कृता । सब नामि चतुर्थी विभक्ति जोड कर यादिमें प्रणव अलि हो हरिसे प्रार्थना करे। अनन्तर "मस्य मुखतो: । तथा अतमें "विष्णये नमः' कह कर पूता करे। विष्ण- महा प्रसत्" इस प्रकार मायना करके म्वाहा और । की इस अपमूर्ति का पूजन शिवलिङ्ग के सम्मुखादि फ्रम- मूलमंत्र उच्चारण करते हुए नैवेधमें जलदान करे। में करना होगा। (निशा न येन्त्र ७५०) इसके बाद मूल मंत्रका उच्चारण कर तथा "एतन्नैवेद्य गरुडपुराणकं २३२-२३४ अध्यायमें विरणुभक्ति, शमुकादेयताये नमः" इस मंत्रसे दोनों हाथोंमे नैवेद्य पकड़ "ॐ निवेदयामि भवते जुपाणेद हविही।" विष्णुका नमस्कार, पूजा, स्तुति और ध्यानके मम्म धमें विस्तृत मालोचना की गई है। विस्तार हो जाने के इस मन्त्रस नैवेद्य अर्पण करें । अनन्तर 'अमृतो पस्तरण भयस यहां उनका उल्लेख नहीं किया गया। मसि' इस मंत्रसे जल देनेके वाद यामहस्नसे प्रासमुद्रा दिखा दक्षिण हस्त द्वारा प्रणयादि सभी मुद्राप दिखाये विष्णु नामकी व्युत्पत्ति। . यथा "ॐ प्राणाय स्वाहा यह कह कर .गुष्ठ - मत्स्यपुराणमें पृथियों के मुखमे भगयानक कुछ नामा. द्वारा निष्ठा और अनामिका, ॐ ध्यानाय स्याहा' की व्युत्पत्ति इस प्रकार देखनेमें आती है। देहियोंके इस मंत्रसे अड गुष्ठ द्वारा मगमा और मनामा, ॐ मध्य सिर्फ भगवान् दो यवशेष हैं, मी कारण उनका उदानाय स्वाहा' इस मनसे अडगुट द्वारा तजे मी, नाम शेष हुआ है। ब्रह्मादि देवनामा मोति मध्यमा सौर बनामा तथा 'गो समानाय स्वाहा' कद कर भगवान्का ध्यंस नहीं है। वे अपने स्थान विध्यत अह गुष्ठ द्वारा सर्वाङ गुलि स्पर्श करे। अनन्तर दोनों । है, इसी कारण उनका नाम अन्युन देशमला और इमाम