पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/८६०

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। वीनसार-बीजोप्तिचक्र भाद्रपद, रेवतो, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र में उसे | से भाग देना होता है। भागफल जो निकलता है यक्ष धाम्यराशिके मध्य रखना होगा। विज्ञपुरुषको चाहिये, | भागादि चीज कहलाता है। इसका दूसरा नाम बीजांश कि.वे किसी प्रकार शस्यफलका व्यय , तथा अभिनवा है। उम बीजांशादिको .. चन्द्र केन्द्र में जोड़ना होगा। • स्त्रोसे संभोग और दक्षिणदिशाको यात्रा न करें। शनिको,मध्यभुक्तिको तीनसे तथा बुधको शोधभुक्तिको वीजसार ( स० पु०) वायविडङ्गः। चार से गुना कर उसमें वीजांश जोड़ दे। उक घोजांश- वीजसू (स' स्त्री०) बीजानि सूते इति सू-फिरप् । पृथ्यो। को दुना करकं पृहस्पतिको मध्यभूक्ति तथा विगुणित वीजस्थापन (सं० लो०)- वीजस्य स्थापन'। वीज बोजांशको शुक्रको शीघ्र भुक्ति में घटानेसे उनके मध्य संप्रह। यीजसञ्चय देखो। . .. और शीत्रको योजशुद्ध जानना होगा। वीजस्नेह ( स० ० ) पलाशवृक्ष, ढाक! . घोजापुर-दाक्षिणात्यका मुसलमान-शासित, एक देश ! वीजा-पक्षाघ गवर्नमेण्टकी राजकीय देखरेख में परिरक्षित | : इसका नाम विजयपुर है। . . सिमला-शैल पर अवस्थित एफ सामन्तराज्य यह . विशेष विवरण विजयपुर शब्दमें देखो। अक्षा० ३०५६ ३” उ० तथा देशा० ७७२० मध्य बीजाम्ल ( स० की..) बोजे अमलोऽम्रसो यस्य । अवस्थित है । भूपरिमाण ४ वर्गमील है। यहांके ठाकुर | वृक्षाम्ल, महादा।। उपाधिधारो सरदार राजपूतवंशीय हैं। उस घंश | योजायिक (सं० पु०.) उष्ट, ऊँट . ठाकुर उभयचांद १८८५ ई०में विद्यमान थे। उन्होंने चीजिम् (सं० पु०) योजमस्त्यस्येति धीज-इनि । १ पिता । कसौली में अंग्रेजी सेनाके यसनेके लिये कुछ जमीन (हेम ) २ वह जिसमें वीज़ हो । ३ चौलाईका साग ! दो थी। उसके बदलेमें आज भी उनके वंशधर अगरेज | वीजोदक (सं० क्ली०) वीजमिय कठिनमुदक, तस्प कठिन गवर्नमेण्टसे वार्षिक १००) २० पाते हैं। उनका राजस्व | स्वात्तथात्वं । करका, आकाशसे गिरनेवाला झोला। . एक हजार २० है जिनमें से १८०) २० पृटिश सरकारको योजोतिबा (R' ली.) योजानामुप्तये शुभाशुभसूत्रक- करमें देना पड़ता है। चक्र। घौजवपनमें शुभ अशुभ जाननेके लिये सर्पाकार- यहांके ठाकुर जिस सनदके बल भूमि पर अधिकार - च । योज वपन करनेसे शुभ होगा या अशुभ, यह चक्र करते हैं उससे ये अगरेजराजको स्वार्थरक्षा और पार्वातीय : द्वारा जाना जाता है। इस चक्रका विषय ज्योतिस्तत्त्वमें पथघाट मादि को रक्षा तथा प्रजाके हितकर कार्यको | इस प्रकार लिखा है-एक सर्पको अङ्कित फर उसमें उन्नति करने के लिये बाध्य हैं। निग्नोक्त रूपसे मक्षनपिन्यास करना होगा,-सूर्ण जिस वाजाकृत ( स० नि०) वीजेन सह कृतकृष्टमिति वीज नक्षत्र में हो उस नक्षनसे आरम्भ कर सर्पके मुख में ३, साच ( कृमो द्वितीयतृतीयशम्बवीजात् कृषौ । पा ॥५८)/ गलेमें ३, उदर, १२, पुच्छमें ४ तथा बाहरमे ५ नक्षत्र रखने उतकृष्टम् । जो वोजके साथ क्षेत्रमें रोपे जा कर पीछे होते हैं अर्थात् सूर्ण यदि अश्विनी नक्षत्र में हों, तो सर्पके वहां प्रविष्ट हो। मुखमें अश्विनी, भरणा, कृत्तिका-गले में रोहिणीसे गादा, योजाख्य (सं० पु०) १ जयपाल वृक्ष, जमालगोटेका पौधा । . उदरमें पुनर्वसुसे उपेष्ठा, पुच्छमें मूलासे श्रवणा तथा २ जमालगोटा। चाहरम धनिष्ठासे रेवती नक्षत्र लिखना होता है । दिनका चीजाङ्करन्याय (सं० पु०) न्यायभेद। पहले बीज या शुभाशुभ उस दिनके नक्षत्र द्वारा ही स्थिर करना होता पहले अकुर अधवा वीजसे अंकुर हुआ है। या अ'कुरसे है। सर्पके बदगमें जो नमन रहता है, उस नक्षत्र में बीम वोज हुआ है, इस प्रकार संदेहस्थलमें यह न्याय होता वपन करनेसे चोलक (शस्यनाश), गलेमे करनेसे गहार, है।न्याय शब्द देखो। उदरम धाग्यकी वृद्धि, पुच्छमें धान्यक्षय तथा बाहरमें इति घामानयन-फलित ज्योतिषोक्त प्रहमुक्तिकालनिर्णयको और रोगभय होता है। अतएव उक्त नमानुसार निषिद्ध प्रक्रियाविशेष । इसमें पहले कल्यदपिण्डको तीन इंजार- | नक्षत्र में बीजवपन न करना चाहिये। . . करना चाहिय.. . .