पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२३६

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२३२ भक्ति के माथ श्रीगुरुको चरण छ कर नमस्कार करे और तत्त्वज्ञानी भवेद योगी स योगी विविधः स्मृतः॥ प्रार्थना करे कि, श्रीनाथ आप जगत्के नाथ हैं, मेरे निगलम्बश्व सालम्नो भतश्च परमेश्वरि । माथ और करुणानिधि हैं। पाप परमामृत प्रदान कर भक्तोपि वीरभावेन साधयेत् कुलसाधनम् । मेरा मनोरथ पूर्ण कोजिए। गुरु कोनोमे यह कहंगे- शक्तिमात्र यजेयोगी भक्तो यो परायणः । कोलगण ! आप प्रत्यक्ष शिवरूपी है। श्राप पाना देवें अभिषेकेन देवेशि भैरवो जायते भुवि ॥ जिसमे मैं इस विनयसम्पत्र सशिष्यको परमामृत प्रदान अवधूतो भवेद्वीरो दिव्यश्च कुलभुन्दरि । कर मकू। कौल यह कहेंगे-चक्रेश्वर। आप मासात् उपशानागगनियन कुलयोपित्परायणः ॥ परमेश्वर हैं, आप कोलरूप पनयनके लिए भास्करस्वरूप कुलशास्त्रीय प्रवक्ता वलिदानरतः सदा । है।पाप इस सत्शिषाको चरितार्थ करें । इसको कुन्ना निन्द्रो निरहंकागे निलोभो निर्भयः शुचिः ॥ मृत देखें। गुरुदेवरत: शाम्तो घृणालज्लाविवर्जितः । ___तदनन्तर गुरु कौन्लोंको अनुमति ले कर शुद्धि के साथ रक्तचन्दनलिप्तांगो इतकौपीनभूषणः॥ परमामृत-पूरित पानपात्र शिषा के हाथ पर रकवे । बाद में उदारचित्तः सर्वत्र वैष्णवाचार तत्परः । गुरुको चाहिये कि, देवी भगवतोको वृदयमें धारण कर कुलाचाररतो वीर: पंडितः कुलषमता। सवमलग्न भस्मके हाग अपने शिषां और कौन्लों के कुल तिसंवेत्ता कुलशास्त्रविशारदः । ललाट पर तिलक लगा दें। पथात प्रमादतत्त्व ममदाय महबलो महाबुद्धिः महामाहमिकः शुचिः ॥ कोनीको परिवेशन करके चक्रानुष्ठानके विधानानुमार नित्य कर्मणि निष्ठातो दम्भहिंसाविवर्जितः । पान और भोजन करें। यह मैंने तुममे शभ-पूर्णाभि पानिन्दासहिष्णुः स्वादुम्काररत: सदा ॥ षेक कहा । इमसे ब्रह्मज्ञान और शिवत्व प्राप्त होता है। वीरमासनमामीनः पितृभूमिगतः शुचिः । नवरात्रि, सप्तरात्रि, पञ्चरावि, विरात्रि अथवा एकरात्रि सदानन्दहृदय: कुमारीपूजने रतः । पूर्णाभिषेक करना चाहिये । कुलेखरि! इस मस्कार में एवं यदि भवेद्वीरस्तदेव हीनजां यजेत् ॥ पाँच कल्प हैं। यदि नवगति अभिषेक करना हो तो दिव्योऽपि वीरभावेन माधयेत् कुल साधनम् । सर्वतोभद्रमगडलको रनना करनी चाहिये । प्रिये ' मश कुलन सर्वजातीनां पूजनीयं कुळ चने ॥ गति अभिषेक में नवनाभमगडल, पञ्चरात्रि अभिषेक सशाने नि:ने :म्ये त्रिगन्ते शून्यमण्डले । पचासमण्डल, विगवि और एकरात्रि अभिषेक में अष्टदाद ग्रामे पातालके वापि साधयेत् कुलसाधनम् ॥" पनकी रचना करनी चाहिये। माधकों को उचित है प्रिये ! आत्माको स्वरूप ज्ञान होते हो तत्त्वज्ञान कि, वे सर्वतोभद्रमगडल और नभमगडल पर घट तथा होता है । तत्त्वज्ञानी योगो हो मकते हैं, वे योगो तीन पश्चाममण्डल पर ५ घट स्थापन करें। अष्टदलपनमें प्रकारके होते हैं-निराला, मालम्ब और भक्त । भक्त. मिर्फ एक घट स्थापना करना पड़ता है। इम पद्माके कोभी वीरभावसे कुलसाधन करना चाहिये । योगपरा- केशरादि अङ्गदेवता और प्रावरण-देवताओंको पूजा यण भक्तयोगोको शक्तिमात्रको पजा करना उचित है। करनी पड़ती है। जो पूर्णभिषेकसे अभिषिक्त कोल हैं, देवेशि ! अभिषेक के द्वारा इस संसारमै भैरव तथा दिय जो निर्मलादय है, उनका दर्शन, स्पर्शन वा घ्राण हारा और वोराचारो अवधत हुआ करता है। स्मयामागममें द्रव्यापि हुआ करती है। निष्ठावान् कुलस्त्रोपरायणा, कुम्नशास्त्रार्थ जो अच्छी साधक और साधिका । तांत्रिक साधक और माधिकाके तरह कर सकता हो, नित्य बलिदानमें रत, बलहीन, मक्षीका भो तत्रोंमें वर्णन है। निरुत्तरतंत्रके ( ११३ प्रकारहीन. निर्लोभ, निर्भय. एज, गुरु पोर देवता- पटलमें) मनसे- से अनुरता, शान्त, पृणालबारहित, जिसके प्रो पर "मात्मनोमानमात्रेण तत्त्वज्ञान भवेत् प्रिये। रखनन्दन लिन को सवर्ण की कौपीन भारत करनेवाला,