सम्ब ९ वनपूर्वक वहमें रख कर पलपाक करें पोर कुणके । दिम नियोध राखियो भयरहित हो कर ममान अथवा मध्य पूजा करें। साधकको उचित है कि, रता, घना, प्रान्तरमें जा कर यहाँ देवोको मद्य, मांस, धूप, दीप वलाका, नोखा, काली, कलावती और हारसमूहके लोक पौर मनोरम उपचार, सामिषान, रसायन और स्वभिः पालोको पूजा करेंपोहे चतुष्कोणके क्रममे ग्रहोंको पूजा रणादि हारा पूजा करें। बाद में मलमन्त्रका जप भोग तथा यथाशक्ति हविर्धारा प्रक्षेप करें। मूनमन्त्र और दण्डवत् हो कर प्रदक्षिण करें। मधुके द्वारा होम तथा दीप, धूप, नैवेद्य पादिवो हार। जब तक निशा शेष न हो, तब तक हो जपादिका पूजा करके प्रदक्षिणा देनी चाहिये। बादमें पिष्ट करमा प्रशस्त है। यदि माधकको उम समय भय उप- वतुल मख्याके अनुसार सुवर्णादि उत्पन्न होते हैं। एक स्थित हो तो उस समय उनको खूब हद स्थित हो तो उस समय उनको खूब हद और दन्तादन्ति प्रयोगमे यदि मिनिहो तो होम करना पड़ेगा। हितोय हो कर मन ही मन स्मरण करना चाहिये। उस समय हारा रौप्य, तोयसे ताम्र और चतुर्थ से लौह होता! अवश्य हो शब्द सुनाई पड़ेगा और उस स्थान पर शिखा है। इनमें अन्यतम होने पर उत्तम सिद्धि साधनो दिखाई देगी। यदि वहाँ गुन्गुन शब्द हो, तो परलतासे चाहिये। भासत हो कर पुनः कार्य प्रारम्भ कर मोर उसके इम प्रकारसे कालिका सिद्ध होने पर इन्द्रत्व भी बाद यदि सुशोभना देववाणी हो तो मितिका उपस्थित दुर्लभ नहीं है। जान कर महोत्सव करें। ये सभी सिधि गुरुमूलक हैं, गुरुके बिना किभो तरह "तथापि प्रर यो नोरेत् भगयागमथाचरेत् । भी सिहि नहीं हो सकती । इसलिये सबसे परले गुरुको कामिनी युवनीं यमात् पुधितान विशेषतः॥ पना करे। गुरुक साधक पर प्रसन्न होते ही मिद्धि तामानीय प्रयत्नन स्व'च भूषणमाचरेत् । होतो है। अन्यथा नहीं। तामुदत्यं स्वयंगन्ध भूषणर्वसनस्तथा । . "तत्रापि प्रत्ययो नो चेत् प्रदक्षिणमथाचरेत् । मिष्टानर्भोजयित्वा । भक्त्या परमग शिवे । अमावास्यादिने चैव निशीथे गतसाध्वस.॥ तां विवस्त्रां विधायैव स्थापयेत्कर्वतल्यगे। श्मशाने प्रान्तरे वापि गत्वा देवी प्रपूजयेत् । ततः पूजां विधायव नानामभारसंयुतः । मद्यमांसोपचारैश्च धूप दीपै मनोरमैः॥ तत्र व रमयेत् यन्त्र रक्तचन्दनयावकैः॥ नवे : सामिषान्नश्च तथैव वरवणिनि । भगनामां भगप्राणां भगदेहां भगस्तनी । दव्यैलोहित वस्त्रेण स्वर्णाभरणभूषितैः॥ पूजयेदष्टपत्रेषु मध्ये देवी प्रपूजयेत् । अपन्मूलं क्रोधरुद्धं प्रदक्षिणमथाचरेत्। रक्तगन्धै रकमाल्यै रक्तवस्त्रमनोरमैः । प्रणमेदण्डद्भूमावनिश गिरिसम्भवे । पूजयेत् भक्तितो मन्त्री देवीदर्शनकाम्यया ॥ निशायामुत्तमं यावनिशाशेष महेश्वरि । एतस्मिन् समये देवि रतिमिच्छति सा यदा। यदि भीतिभवेत्तस्य तदा दृढ़तरे भवेत॥ लतान्तु रमयदेवि यावदोमं करोति न॥ चन्तादन्तिविधायैव मनसेव मनुस्मरेत् । पुष्पिणीमकरन्दन ततो होम' समाचरेत् । अवश्य श्रूयते शब्दः शिखा च दृश्यते स्थले ॥ ओं नमस्ते भगमालायै भगरूपधरे शुभे । यदि तत्र भवेद् देवि शन्दो गुणगुणो भवेत्। भगरूपे महाभागे भोगमोक्षकदायिनि । ततः परलतासक्त: पुन: कार्य तथैव च ॥ भगवत्याः प्रसादेन मम सिद्धिभविष्यति ॥ तदा भवति चागि देववाणी मुश्मना । अवश्य कषयेत् कान्ता नात्र कार्या विचारणा। . सिद्धिमावश्यकं हात्वा महोत्सवमथाचरेत् ।" इति ते कथितं देवि गुयायतरं परं ॥ इससे भी यदि मिहिन हो, तो प्रदक्षिण भाचरण प्रकाशात् कार्यहानिः स्यात् तस्मात् यत्नेन गोपयेत।" करना चाहिये। साधवानी चाहिये कि देषमावासा ससे भी सिद्धिनहो तो साधकको भगयाग करना
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२४३
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