२५० चाहिये । माधकको उचित है कि, एक युवतो पुष्पिणी गणनाथ क्षेत्रपालं बटुकं योगिनी तथा । कामिनीको यत्रप व क ना कर स्वयं उमको गन्धादि पलिमिः सामिषानैचश्च यजेत् परमसुन्दरि । हारा भूषित करें। उमको मिष्टान भोजन करा कर तथा घृतप्रदीप प्रज्वाल्य ततो देवीं समर्चयेत् ॥ विवस्त्रा (मंगो) करके अईतल्प पर स्थापन करें। पोछे . ततः सहस्र जपतो देवत दर्शनं भवेत् । गत चन्दन और अन्नातक हारा यन्त्र बनावें और नाना अथवा नियमीभूत्वा भूतलिप्यादिसंपुटम् ॥ उपकरगीन प जा करें। भगयागमें भग ही नाम है. भग जपेत् प्रतिदिनं देवि सहनं सिद्धिहेतवे।" ही प्राण हैं, भग हो देह है और भग हो स्तन है. अष्ट . यदि पूर्वोक्त कार्य में साधक अशत हो, तो उन्हें पत्रां मध्य देवीको पूजा करें। पूजा करते समय रत्ता- • कलावतो आचरण करना चाहिये। कुछम चन्दन गन्ध, गवस्त्र, रकमान्य आदि प्रदान करें। देवोके . और चन्द्र ( कपूर ) को एकत्र करके पेषित करें तथा दर्शनको कामना करके इस प्रकारमे पजा करें। उम महस्र जप करके देवोको पूजा करें । अनन्तर कामिनी- ममय यदि वह रति के लिए प्रार्थना करे, तो जब तक पूजा करें। उयुता इत्यादि मत्र मो बार जप कर होम न होवे तब तक लता में रत रहना चाहिये। के। उसके मस्तक पर तिलक लगा दें पोर खुद भी तिलक पुष्पिणी-मकरन्द हाग होम करें। आं भगमानाय नमः, लगावें। यान पूर्वक नाना आभरणसे भूषित कलाको पूजा तुम भगरूपधारिणी हो तुम महाभागा हो, तुम्ही एक करें। पीछे यत्नपूर्वक मद्य पी कर उसको भो पिलावं मात्र मोक्षदायिन' हा, इत्यादि कह कर प्रणाम करें। और उस ममय देववाणी होने पर और भी यत्नके साथ 'तुम्हारे अनग्रहमे मुझे मिडि पाल हो, इस प्रकारका जपादि आचरण करें। अथवा उम समय साधक स्वय पाचरण करनेमे मिहि होता है । यह अत्यन्त गुद्यतम नग्न हो कर तथा उसको नंगी करके, उमे देखते एए अनन्यचित्तमे जप करें। है। कोई उमको प्रकट कर दे तो कार्य में हानि होतो है। मलिए इमको मच तरन्दमे गुप्त रखना चाहिये। यामोत्तरमें प्रारम्भ करके यामहय अतन्द्रितभावसे • अवाशक्तो महेशानि कलावती माचरेत् । मद्य और मांस आदि उपचार हाग इष्टदेवोको पूजा करें। प्रात्मरक्षाके लिए खड्गधारी होना तथा पाय में कुकुम चन्दनं नन्हें एकीकृत्य तु पेषयेत् । रक्षा करना जरूरी है। जपेत् महस्रं देवेशि देवीभव प्रपूजयेत् । ___तत्पश्चात् गणनाथ, क्षेत्रपाल, वटुक और योगिनी, कामिनी पूजयेत् भक्त्या तस्या मूर्ध्वनि कारयेत् ॥ इनका मामिषाबहारा याग करें तथा हतप्रदीप प्रज्च- तिलक वश्य मात्रेण स्वयं शिरसि धारयेत। लित करके देवोको अर्चना करें। इस प्रकारमे हजार रमा वाणीभवानी च सर्व मन्मोहिनी तथा ॥ जप करने पर देवताने दर्शन होते हैं। अथवा नियमी देयुता परमेणानि वद्विान्तावधिमनुः । हो कर भूतलिप्यादि संपुट प्रतिदिन हजार जप करें। अनेन शनजपेन तिलक' मुनि कारयेत् ॥ इससे भो सिद्धि होती है। कलांच पूजयेद्यत्नान् नानाभरणभूषिताम् । "दिवारात्रो संस्मरण हविष्याशनमेव च । पाययेत् सा स्वयं यत्नात् स्वयं पीवा च यत्नतः॥ कुमारी पूजयेत् यत्नात् नानाभरणसंयुताम। जायते देववाणी च ततो देवीं न मंशयः । मासे पूर्णे वरारोहे निशीथे मतसाध्वसः । एवं भूत्वा वगरोहे ततो यत्न' समाचरेत ॥ महापूजां प्रकुर्वीत लतामण्डलमध्यगः । अथवा देवदेवेशि नग्नीभूय विचक्षणः । मयै मासैश्च विविधैग्न्यैश्च विविधैस्तथा । नग्नां परलतां पश्यन् जपेत मन्त्रमनन्यधीः । संपूज्य विधिवद्भक्त्या सर्वदा तिमिरालये। यामोत्तरे समारभ्य यामद्वयमतन्द्रितः। सहस्रजपमात्रण सिर्भिवति नान्यथा । मद्यमांसोपचारैव पूजयित्वेष्टदेवताम ॥ साक्षादायाति सा देवी सरसत्य न संशयः॥ रसायखड्गपाणिस्तु स्वपार्वेऽपि नियोजपेत् । साक्षाद याति वरारोहे मदिनसमोगरा ..
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२४४
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