पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२७६

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२७२ नपल्यामतम्य-तपस्विन् तपस्यामत्स्य (म', पुत्रो०) मत्स्यभेद, पमो मछली। करते हैं। वे कठिन यबम तपस्या के फल जानार्जनमें इसके पर्याय -- तपःकर नेटक अोर चेष्ट । प्रविष्ट होते हैं। उनके वेदवाक्यानुगोलनके प्रभावसे ज्ञान तपस्वत् म नि । ताममप मम्य व । तपस्वी : प्रवत्तित होते रहते है। वे अविचलितचिससे हिमा, तपस्विता में रखी ) नाविनी भावः तपम्विन्तान अपवाद, शठता, परुषता, करतापरिशून्य और परिमित टाप पम्बिव वो होनको अवस्था। मन्यवाक्य प्रयोग किया करते हैं। सपस्वी ममारके तपस्विन (म. वि. : तपो विद्यतेऽस्य तपस.विनि। भय में भोत हो कर राजमिक और ताममिक कार्य परि तपःमहम्रा विगानी । पा ५।२। १०२ : १ तगोयुक, त्याग करके समारको यन्त्रणा अर्थात् जन्म, मृत्यु, जरा तपस्॥ करगना। हम पर्याय तापम, पारिका, और व्याधिक फदेमे विमुक होते हैं। वे वोतम्प, ह, परि- पारका हो और तपोधन है। ग्रहपरिशून्य, निर्जनविहारो, अम्पाहानिरत और जिते. स्वाध्यायरूप नप, ममयरूप प तथा मनके माय इन्द्रियां न्द्रिय होते हैं। जो तपस्या के प्रभावमे ममस्त केशको का एकाग्रनारूप प, इन तोन पका तपस्याविशष्ट- निवारण कर योगानुष्ठानमें एकान्त अनुराग दिलात को तप वा कहते हैं। विधिपूर्वक वेदादि अध्ययन हैं, व निथप हो पपने वशीकत चित्त के प्रभावमे परम. ममय गथशास्त्र नियादि पालन और मन' माथ गति पान में ममर्थ होते हैं। बुद्धिमान मनुष्य पहले इन्ट्रियाको एकाग्रता अर्थात् स्थिरत्व मम्पादन नहीं बुद्धिवृत्तिको नगृहोत कर पोछे उमो धोगक्ति के प्रभावसे करनेमे तपबीन शहा मकता है। मनको तथा मन:प्रभावमं शब्दादि इन्द्रियविषय ममरको जिनके बाव, नियमित्व और वैदिकत्व ये तान निग्रहोत करते हैं। जितेन्द्रिय हो कर चित्तको गुण विद्यमान हैं, हो प्रकन तपस्वी हैं। जिन्होंने वशीभूत करनेमे मब इन्द्रियों प्रमन्त्र हो बुद्धितत्त्वम लोन म मार-पाथम परित्याग कर अरण्य वाम किया है और हो जाती हैं। इन्द्रियों के माथ मनका एकता मम्पादित यहा तन-मनमे देवताको पारामना करते हैं, वे भी होनसे हो तपस्याका फल ब्रह्मज्ञान उत्पन्न होता तथा तपस्ता कहलाते हैं। उमो ममय मनमें ब्रह्मभाव पा जाता है । एम ममारमें मनुष्य दुनि वार इन्द्रियममें आमन्ना तरखोगा विशुद्ध कृत्ति अवलम्बन कर तण्डलकणा, हो कर कभी न कभी अवमव हो जाते हैं। बडिमान सुपकमाष, याक, उण जन्न, पत्र , और मनुष्य जम्म, मृन्य , जरा, व्याधि भार मानमिक केशमे मा. मना जशा शाधि और मानसिक केशम फलमूल प्रभृति भिझालब्धट्रय भक्षण करके जोवनधारण ममारका अमार ममझ कर तपस्या के लिये यत्नशील ही करते हैं। जाते तथा वे कायमनोवाकासे पवित्र, अ'कारगिशून्य तपस्या का कार्य प्रारम्भ होनमे उन्हें व्याघात करना और ममारमें निलिप हो कर भिक्षावृत्ति अगलम्बन तय नहीं है। अग्निको नाई क्रमशः उनको उत्त. करके तपम्याका अनुष्ठान किया करते हैं। जना करना हो विधय है। एमा होनेसे धीरे धीरे सूर्य- प्रागयों के प्रति दया करनेमे उनमें अनगग उत्पन्न को नाई तामाका फल ब्रह्मज्ञान प्रकाशित हुआ करता हो मकता है; इमलिये प्राणियां पर उपेक्षा दर्गा । तप- है। जानानुगत अज्ञान, जाग्रत्, स्वप्र और सुषुति इन स्वियोंको उचित है। शुभकर्म का अनुष्ठान करके यदि तोना अवस्थाओं में हो मनुष्यको अभिभूत करता और उन्ह दुःख भोग करना पड़े तो विरत नहीं होते। बुद्धिवृत्ति के अनुगत ज्ञान और पचान हारा उपहत (मष्ट) तपस्खो अहिमा, मत्यवाक्य, भूतानुकम्मा, क्षमा और हुआ करता है। मनुष्य जब तक अवस्थात्रयातीत पर सावधानता अवलम्बन किया करते हैं। मामाको उन तोन प्रवखायुत कह कर समझते हैं, तब , वे प्रवाहितचिप्समे ममम्त प्राणियों के पति ममान तक उन्हें कुछ भो समझमें नहीं पा सकता । फिर जब दृष्टिमे देखते हैं । दूसरे को अनिष्टचिन्ता, अमम्भव स्यहा तपमा प्रभावसे पृथकत्व और पपथकत्वका विषय पौर भविच या भूत विषय के प्रमुष्ठानमे सर्वदा विरत' समझमें पा जाता है, तब उनको मा सदा के लिये दूर