पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/६५५

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निदिध्यामन प्रभृतिमें अभ्यस्त होने लगे। इस तरह सुकारामने नामदेव रचित प्रभासे अपने धर्मजोवन तुकाराममा धर्म जोवन संगठित होने लगा। के विकाशमें विशेष सहायता पायो दी। इस समय तुकाराम देहुत लोट अनिके बाद हो माधु और सज्जना- एक दिन उन्होंने स्वामें देखा, कि विठोबा देव उपस्थित को सेवामें नियुक्त हुए । जिम स्थान पर हरिमोसनके हो कर उनसे कर रहे -"तुकाराम ! मेरे भात नाम- लिये १० मनुष्य एकत्र होते, उस स्थान को घे भपन देवने जितने प्रभा रचनेको परछा को थो, सतने पूरे न हाथसे परिष्कार कर दिया करते थे, जिससे कि भोंके हुए, इसलिये तुम उन्ह ममान कर का कल्याण चरणमें कठिन काड़ोंका पाघात न लगे। जब सब कोई करो। मैं तुमको मप्रेम जान प्रदान करता" इतमा हरि-कथा श्रवणार्थ धरम प्रवेश करते, तब वे उनके कावर विठोवा पन्तान हो गये। जतो की रक्षा करते थे। दूसरे का उपकार पोर तुकारामने पहले भागवतके दशम स्वान्धमें वर्णित साधनों को सेवा अतिरिक्त उनके जीवनका और दूसरा श्रीक्षणको बायलोलाका ८०० सौ लोकों में वर्षन कर कोई लक्ष्य हो न था। तुकारामको ऐसो अवस्था देख एक ग्रन्थ बनाया और सहीतनके समय उनके मुखये . बहुतसे लोग उनसे व्यर्थ परिश्रम कराते थे। यह भावमयो कविताएं अनर्गल नि:सत होने लगो। धर्मः व्यवहार तुकारामको स्त्रो सहन न कर मकाती थी, इस विषो लोग तुकारामको उम उपदेश-पूर्व पदावलीको कारण वह मभों से कलह करतो थो। तुकारामके सुन कर प्राम-विस्मत हो जाते थे। इनके म न में जीवनो लेखकोंने तुकारामको स्त्रोका वर्णन करते समय ऐसो एक मोहिनो शक्ति यो, कि जो इसे एक बार सुन उन्हें मुखड़ा प्रभृति कह कर दूषित किया है, किन्तु लेता वह उसे कभी न भूलता था। प्रत्युत वह उसके पर्यालोचना करके देखा जाय तो उन्हें प्रक्षत-पतिपरा- दयमें हरूपमे पडित हो जाता था। यणाके सिवा पोर कुछ नहीं कह सकत । अबलाई धन पहले जो तुकारामको पागल समझ कर पृषा करते वान्की कन्या थीं। जब उनका विवाह हुषा था, तब थे, अभी वे उनका भाव देख कर विस्मित होने संग। मको अवस्था अच्छी थो। बादमें पहष्ट दोषी क्रमश: तुकारामका गौरव पोर प्रतिष्ठा बढ़ने लगो। सबको क्रमशः दरिद्रताकै कारण वह मर्वदा अबको चिन्तामें पूरा विश्वास हो गया कि तुकाराम यथार्थ में एक प्रजात व्यस्त रहतो थौं । तुकारामने विठोवाकी भक्ति में अपना साधु है। तुकारामने पहले खिर किया था कि निर्जन सर्वस्व खो दिया है, यह धारणा उनके दयमें बैठ गई स्थान हो तपस्याकं लिये उपयुक्त है, किन्तु अभी उनके थी। इसी कारण अबलाई त कारामको कभी कभी मनका भाव बदल गया । संमारमें रह कर वे नाना प्रका. तिरस्कार करतो थी, किन्तु उसमें एक प्रधान गुण यह रसे जीवका कल्याण माधन कर सकते। यह सोचकर था कि वह स्वामोको बिना खिलाये पाप कभी न खाती संभारके प्रति उनका विराग घटने लगा । वे पुनः संसारमें थी । इसलिये त कागम जब कभी घरसे पदृश्य प्रवेश हुए और पनामाता-भावसे संसारमें रह कर नाम- हो जाते थे, तब अबलाई नदीतोर, प्रामसर, पर्वत, गुहा कोतम करने लगे। उनके रस कोतमको सुनने के लिये अथवा जहांसे हो वहां वह उन्ह खोज लाती और दूर दूर देशों से अनेक लोग पाने लगे। इस समय दलक भोजन कराती थौं, उन्हें खिलाये बिना वह किसी दल तुकाराम शिष्य होने लगे। तुकाराम नये मन- काम न लगती थी। जब कागम भास्वनाथ पर्वत राग पोर सत्साहसे कौत्तन करते थे । त कागमक पर रहते थे, तब वहा भी अवलाई पाहाय द्रव्य ले कर । शिष्यामि गङ्गाधरपन्य नामक एक बाप और सन्ताजो पहुंचतो थौं। एक दिन इसो अवस्था कडीप और नामक एक तलिक ये हो दो मनुष्य प्रधान थे। नका. पथ श्रममे कान्त होकर वह मूति हो. पडो थीं। राम के पोछ पछि कोत्तन समय ये करताल और वीणा तुकाराम अपनो स्वाके मलप्राको देख कर वहांसे ले कर धूमत फिरत थे। गजाधरपन्यके अपर काराम- देत चले गये और वहीं रहने लगे थे। को कविता लिखनेका भार था। इस समय बापट