प्रत्यमाव ११ प्राण, मन, बुद्धि और इन्द्रिय द्वारा रचित है। वेदान्त इसी कारण मांसलिन अस्थिरचित दृश्यदेहके अन्त- चैतन्याधिष्ठित सूक्ष्मशरीरको ही जीव कहते हैं। गलमें सूक्ष्म इन्द्रियातीत शरीरका रहना अनुमित होता दृश्यमान देहके अभ्यन्तर एक सूक्ष्म देह है, उसका है। स्थलशरीगवस्थामें सभी कर्मज्ञान उस शरीरको प्रमाण क्या ? इस पर सांख्य कहते हैं, कि योगियोंका। महायतासे उत्पन्न होता है और दोनोंका संस्कार उसीसे अनुभव और योगियोंका अद्भत कार्यकलाप ही उसका स्थितिलाभ करता है। जन्ममरणकी अन्तराल अवस्था- प्रमाण है। कार्यकलाप किस प्रकार सूक्ष्मणरीरका : में अर्थात् स्थलशरीर वियुक्त हुआ है, अथच अभिनव- अस्तित्व-साधक है, वह योगी हुए विना समझमें नहीं। स्थूल शरीर उत्पन्न नहीं हुआ। वैसी अवस्थामें भी आ सकता। योगी योगसाधन करके सूक्ष्म शरीरको धर्माधर्मादिका संस्कार उसमें आवद्ध रहता है। इह- इस प्रकार उत्पन्न कर मकते है, कि मांसपिण्ड अस्थि- जन्ममें जिन मव बुद्भिवृनियोंका आविर्भाव हुआ है, नत्ता- पिञ्जर दृश्य शरीरसे वहिर्गत हो कर वे स्वच्छानुमार वत्का सम्कार लिङ्गशरीग्में आवद्ध होता है और रह विचरण और परशरीग्में प्रवेश करते हैं। इस समय जाता है। बुद्धिके आविर्भावप्रभावसे दृश्य देह केवल केवल युक्ति द्वारा सूक्ष्म शरीरसद्भाव वोधगम्य किया म्पन्दित होती है और उसके मस्कार के सिवा अन्य कोई जाता है। शास्त्रमें इसकी युक्तिका विषय इस प्रकार, संस्कार इसमें आवद्ध नहीं होता। यही कारण है, कि लिखा है धर्माधर्म, ज्ञानाज्ञान, वैराग्यावैगम्य, ऐश्वर्या- स्थूलदेहका ध्वस होने पर धर्माधर्मादिका मस्कार नैश्वर्य और लजा भय आदि जो मव गुण मानवीय विलुप्त नहीं होता। तथा इहजन्मकी कार्यरुचि पूर्वजन्म आत्माको वस्त्रकुसुम ( वस्त्रमें पुष्पका स्पर्श होनेसे जिस के सस्कारानुरूप हुआ करती है। प्रकार वस्त्र सुवासित होता है, उसी प्रकार ) को तरह : "सूक्ष्मास्तेषां नियता माता पितृजा निवर्तन्ते।" निरन्तर अधिवासित करते हैं, वे सभी बुद्धिपदार्थ में । सांख्यका०३६) गिने जाते हैं । इसका कारण यह, कि घुद्धिको हो विशेष मातापितृजात अर्थात् शुक गणित द्वार। उत्पन्न यह विशेष अवस्था धर्माधर्मादि विविध नामोंको नामा हैं। घाटकोषिक देह पड़ी रहती है, सड़ जाती है, मट्टी हो जाती बुद्धि ऐसी चीज नहीं जो निराश्रयमें रहे, अवश्य उमझा है, भस्म बन जाती है, गीदड़ कुते उसे खाते हैं, तथा यह आश्रय है। थोड़ा ध्यानपूर्वक विचार करनेसे प्रतीत विष्टा भी हो जाती है। किन्तु 'सूक्ष्मास्नेषां नियताः' होगा, कि बुद्धि मांसलिप्त अस्थिपिञ्जरमे अवस्थित नहीं : अर्थात् उसके मध्य सूक्ष्मशरीर नियतकालयत्तों है। यह है और न निरुपाधिक आत्मामें हो अवस्थित है। निरु मोक्ष अथवा प्रलय नहीं होने तक रहता है। मूक्ष्मशरीर पाधिक आत्मा, निर्गण, निष्क्रिय और निधर्मक है। धार धार पाटौपिक शरीरको ग्रहण करता है और बार सुतरां बुद्धिका पृथक आश्रय कल्पनीय घा अनुमेय है। घार उससे विमुक्त होता है । पाटकोपिक शरीरके जो बुद्धिके आश्रय है, वही सूक्ष्मशरीर है। सूक्ष्मशरोरमें उत्पन्न होनेको जन्म और उससे विमुक्त होनेको ही मरण ही बुद्धिकी स्थिति और उत्पत्ति है। कहते हैं। सांख्यकार कहते हैं, कि चित्र जिस प्रकार बिना जन्ममरणका अन्तराल । अन्तराल शब्दका अर्थ आश्रयके स्थित नहीं रह सकता, छाया जिस प्रकार मध्यकाल है। मरण हुआ है, अथच शरीरोत्पत्ति नहीं मूर्ति पदार्थ के बिना नहीं रह सकती, उसी प्रकार लिङ्ग हुई। इस मध्यवत्तो अवस्थाविषयमें वेदान्तादि शास्त्रों भर्थात् नाना प्रभेदधती बुद्धि भी बिना किसी एक उप में इस प्रकार लिया है। युक्त भाश्रय वा आधारके नहीं रह सकती। अभिनिवेश, ध्यान और अध्यान इन मवका फला. "चित्रं यथाश्रयमृते स्थाण्वादिभ्यो विना यथा छाया। फल अनुसन्धान करनेसे अन्तरालमें अवस्थाका सुस्पष्ठ- तद्विना विशेषैर्न तिष्ठति निराश्रय लिङ्गम् ॥” चित्र मालूम हो सकता है। किसी आदमीकी अन्तिम ( सांख्यका० ४१) ६ दण्ड रातमें ही नोंद टूट जाती है, उसने उसी प्रकार
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