पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/२४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२३४ बलि-बलिभ जो बलि होतो है वह अधिक-संख्यक, अथच परस्पर बलिकर्म (स.ली.) बलिकिया, बलिदान । विभिन्नरूप हो कर निकलती है। ये बलियां शुष्क, बलिका ( स० स्त्री०) बलैः बलाथै कन्, टापि अत इत्वं । वेदनायुक्त, अनुपचित, कठिन, अपिच्छिल, कर्कश और अतिवला। स्वरस्पर्श होती तथा वक्रभावसे उठती हैं। उनका अप्रभाग बलिदान ( स० क्लो०)। एक देवताके उद्देश्यसे नैवेद्यादि अतिसूक्ष्म और चौड़े मुंहका होता है। इन बलियोंका। पूजाकी सामग्री चढ़ाना । २ बकरे आदि पशु दुर्गादि वर्ण धूम्र वा लोहित होता है। उनकी आकृति वेर, देवताके उद्देश्यसे मारना । बलि देखो। खजूर और ककड़ीके फलके समान, कहीं कदम्ब पुष्पके बलिध्वंसिन् (सं० पु. ) विष्णु । बलि देखो। और कहीं राई-सरसोंके समान पीतवर्णकी होती है तथा बलिन् (स० वि०) बल मत्वर्थे इनि ( बलादिभ्योमपन्य- वे सूक्ष्म पिड़कासे परिवेष्टित रहती हैं। इनसे रोगीका तरस्यां। पापा२।१३५ ) १ बलवान्, बलवाला । (पु०) मस्तक, पार्श्वदेश, स्कंददेश, कटि, ऊरु और छाती आदि २ उष्ट्र. ऊंट। ३ महिष, भैसा। ४ वृष, बैल । ५ स्थानोंमें वेदना, उद्गार विष्टभ हृद्रोग, अरुचि, कास, शूकर, सूअर । ६ कुन्दवृक्ष । ७ कफ। ८ माष, उड़द । श्वास, विषमाग्नि, कानोंमें शब्द और भम होता है । इन 6 बलराम । से चर्म, नख, विष्ठा, मूत्र, चक्ष और मुख कृष्णवर्णके बलिन ( स० वि०) बलि पामा दित्वात् न । १ बलिभ, हो जाते हैं। ! जरा द्वारा श्लथचर्मयुक्त, बुढ़ापा आने पर जिसका चमड़ा पित्तज बबासीरमें बलि नील, रक्त, पीत अथवा काली, ढीला हो गया हो। उनका अप्रभाग नीलवर्ण, संख्यामें अल्प, कोमल और बलिनन्दन ( स० पु० ) १ बलिके पुत्र बाणासुर । लम्बी होती हैं। उनकी आकृति शुकपक्षीकी जिलाके पाण देखो। समान, यकृतखण्ड यवके सदृश और मध्य तथा अन्त- २ अङ्ग, वङ्ग और कलिङ्ग आदि बलिपुत्र । र्भागमें सूक्ष्म होती हैं। इस प्रकार बलि होनेसे दाह, ज्वर, (विष्णुपु० ४।१८१) घम, पिपासा, मूर्छा और ग्लानि होती है। पोछे चर्म, | बलिनिसूदन (स० पु० ) बाल निसूदयति सूद-ल्यु । बलि नख, मलमूलादि हरिद्रावण के हो जाते हैं। ध्वंसी, विष्णु। ___ रक्तज अर्शमें बोलयां पित्तज अर्शके समान लक्षण बलिन्दम ( स० पु० ) बलिं दमयति दम-ख, मुम् । बलिका दिखायो देते हैं। उनकी आकृति बटवृक्षके अंकुरके तथा| दमन करनेवाला, विष्णु । गुजा फलके समान होती है। मल कठिन होने पर भी बलिपशु (हिं० पु०) वह पशु जो किसी देवताके उद्देश- बलि दूषित अथच उष्ण रक्त बड़े बेगसे निकलती है। से मारा जाय । इससे रोगीका शरीर मेढ़कके समान पीला पड़ जाता बलिपुष्ट ( स० पु०) वैश्वदेवेन बलिना पुष्टः । काक, है और रक्तक्षय उत्पन्न जितने भी उपद्रव हैं सभी दिखाई कौवा । देने लगते हैं। इसमें वल, वर्ण उत्साह, शक्तिका ह्रास बलिपोदकी ( स० स्त्री० ) बले. पोदकी उपोदकी। एक और इन्द्रियां आकुल हो जाती हैं। (भावप्र०) प्रकारका साग । ___ अर्शरोग बलियोंके ये लक्षण उपस्थित होने पर बलिप्रदान (सपु०) बलिदान । उसकी चिकित्सा करनी चाहिये । अर्श रोगकी चिकित्सा बलिप्रिय (संपु०) बलिं उपहार प्रीणातीति बलि-प्री. होने पर बलियां भी चली जाती हैं । बलि अनेक स्थलोंमें क।१ लोध्रपृक्ष, लोधका पेड़। बलिर्वेश्वदेववलिः प्रियो अस्त्रचिकित्सासे दूर की जाती है। (भावप्र०) यस्य। २काक, कौवा ३ उपहारप्रिय। बलि (हि स्त्री० ) १ बलि देखो। २ सस्त्री । बलिबन्धन ( स० पु० ) बलिको बांधनेवाले विष्णु । बलिक (सं० पु०) एक नागका नाम । बलिबिन्ध्य (संपु०) रैवतक मनुके एक पुलका नाम । बलिकर ( स० क्ली०) बलिका उपादान । बलिभ (सं० लि०) बलिश्चर्मसंकोचोऽस्त्यस्येति बलि