पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/३७०

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३६४ बासिद्वार पनतरणमें दुर्गा, काल और भूतोंकी तृप्तिके लिये सब ब्रह्माकी पली सरस्वती देवी यहां विद्या नामसे लोग उनको पूजते हैं । पुरी नामके मन्दिर में उच्च जातिके पूजित हैं। उनकी पूजाका कोई दूसरा भिन्न मदिर मनुष्य और 'पङ्गस्तनन' मन्दिरमें शिवजीकी सभी लोग नहीं है। वतु गुमोङ्ग सप्ताहमें शनैश्चरके दिन बालि- प्रजा किया करते हैं। 'परार्यअन्न' नामक मन्दिरोंमें देव | वासी नाना पोथियोंको इकट्ठा कर गृहस्थित देवालयमें और पितृगणकी पूजा हुआ करती है। काङ्गन, खड़क सरस्वतीको पूजा करते हैं। हाङ्गन सङ्गर और मेरु आदि छोटे छोटे मन्दिर महादेवकी ___ बालिवासी यद्यपि विष्णुका विशेषरूपसे पूजन नहीं पूजाके लिये निर्दिष्ट हैं। इन मन्दिरों में शिवजी पद्मासन करते, तोभी वे विष्णुके मत्स्य, वराह, कूर्म, वामन, परशु- लगा कर बैठे हैं। उन्हीं के तृप्ति-साधक माल्य और राम प्रभृति अवतार स्वीकार करते हैं। शंख, चक्र, चन्दनादि गंध द्रष्य चढ़ाये जाते हैं। प्रत्येक मन्दिरमें गदा और दण्ड विष्णुके प्रधान चिह्न हैं। लिंगकी मूर्ति स्थापित है । समुद्र के किनारे बहुतसे वे लोग श्री वा लक्ष्मीको विष्णुको पत्नी मानते हैं । वरुणदेवके मन्दिर हैं। राहमें सतियों के अनेक मन्दिर जब विष्णु, ब्रह्मा और शिव (स्रष्टा रक्षक और संहर्ता) ये दृष्टिगोचर होते हैं। तीनों शक्तियां एक हैं, तब लक्ष्मी सरस्वती प्रभृतिको शिष- वालिद्वीपमें वैष्णवधर्मका प्रचार नहीं है तो भी की पत्नी मानने में कोई दोष नहीं है। वे लोग अभ्यास- ब्राह्मण शिवपूजाके समय विष्णु भगवानकी पूजा करते वशसे विष्णुमूर्तिके माथे पर तिलक लगाते हैं। शिवके हैं। ये ही बहुत कुछ हम लोगों की हरिहरमूर्ति के एकात्म. जिस तरह तीन नेत्र हैं, उसी तरह कपालस्थ तिलकको धे सूचक हैं। वे मेरु, कैलाश और गुनुग अगुङ्गको स्वर्ग लोग शिवके त्रि-नेत्र जैसा व्यक्त करते हैं । वैष्णवी मूर्ति या इन्दलोक, विष्णुलोक या ब्रह्मलोक और शिवलोक लक्ष्मी और सरस्वतीके माथे पर 'पेरयशन' या यशतिलक कह कर कल्पना करते हैं और उन तीन लोकों में शिवजी देते हैं। प्राचीन कविनथोंमें कहे हुये अनेक देवताओं- सर्वमय रूपमें विराजमान हैं। पदण्ड लोग शिवजीके | की मूर्तियां भी खुदी हुई हैं। घे हिंदू देवताओंका त्रित्व सिवाय और किसी भी देवताके चार हाथ नहीं मानते। स्वीकार करते हैं, तो भी उनके यहां ब्रह्माण्ड पुराणोक्त शिवजीके प्रधान अंगआभूषण ये सब हैं---अक्षमाला, अपरापर देवताओंका उल्लेख मिलता है। इन्द्र, यम, सूर्य, चामर, त्रिशूल और पान | कितनी सशस्त्र शिवमूर्तियोंका चन्द्र, अनिल, कुवेर, वरुण, अग्नि आदि आठ देवताओं- पहिले ही उल्लेख हो चुका है । शिव और काल एक होने को ये लोकपाल कहते हैं । इन्द्र के बाद यम और वरुण- पर भी मंगलमय शिवमूर्ति तुषारधवल और महासंहारक का ये आदर सत्कार करते हैं। देवराज इन्द्र स्वर्गपुरी. कालमूर्ति घोर तामस हैं। पनतरणमें काल और उनकी में अप्सरा, विद्याधरी और ऋषियोंसे परिवृत हो पत्नी दुर्गा तथा अनुचर भूतों की पूजा होती है। शिव रहते हैं। पत्नी उमा, पार्वती, गिरिपुत्री, देवीगडा और देवीदनु 'विवाह' नामके प्रथमें रावणके द्वारा किया गया है. नामों से पूजित होती हैं। शस्याधिष्ठात्री लक्ष्मीदेवी यहां का पराभव वर्णित है। बालिवासियोंका विश्वास है, पर शिवपत्नीके रूपमें महादेवजीके साथ पूजी जाती हैं। कि इन्द्रलोकवासी मनुष्य देहको धारण कर सकते हैं। विष्णुकी तरह यहां ब्रह्माजीका कोई मंदिर नहीं है। इन्द्रलोकको पार कर जीव विष्णुलोकको जाता है । पश्चात् किसी महोत्सवमें विष्णु और ब्रह्ममूर्तिके साथमें अस्थायी शिवलोक जाने पर आत्माको अनन्त सुखकी प्राप्ति होती मंदिर बनता है। उत्सवफे बाद वह पुनः तोड़ दिया जाता है। शिवलोककी प्राप्ति होसबोंका मुख्य उद्देश्य है, तो भी है। यहां ब्रह्मा-पनयोनि, प्रजापति और चतुर्मख नाम- एकमात्र पदण्ड लोगको ही सायुज्यकी प्राप्ति होती है। से विख्यात हैं। दण्ड ही ब्रह्माकी प्रधान भूषा है। जो अनेक परिश्रम करने पर भी शिवलोक नहीं पा सकते। ब्राह्मण पण्डित उस दण्डका धारण करते हैं, वे ही वेला उत्सवमें सहमृता सतीके और राज्यकी रक्षाके लिये पहण्ड कहलाते हैं। | रणभेनमें आत्मजीवनकी न्योछार करनेसे राजाको स्वर्ग-