पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५३४

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बौदधर्म अस्वीकार नहीं कर सकते। दुःख रहना हो उसका . अपरिवर्तनशीलताके भाकांक्षी हैं। जो क्षणस्थागी कारण (समुदय ) है। इस दुःखका निरोध करनेके . तथा परिय निशील हैं, वही अमङ्गल है और इसका लिए अवश्य ही कोई पथ या उपाय ( मार्ग ) है। परिहार करा ही जीवोंका प्रधान कर्तव्य है। किन्तु प्रतीत्यसमुत्पाद। बौद्धधर्म लाके अस्तित्वका स्वीकार नहीं करते। प्रतीत्यसमुत्पाद बारह प्रकारका है। इसका दूसग आत्माके स यन्धमें तोन मत प्रबल है:- नाम 'द्वादशनिदान' भी है। इस द्वादश-निदानका उद्देश्य (१) पाश्वतवाद-आत्मा इहलोक तथा परलोक है दुःखका यथार्थ कारण निर्णय करना.। आयुर्वेदके . दोनों लोक वर्तमान रहती है। साथ निदानया जो सम्बन्ध, आर्यसत्यके माथ द्वादश-, (२) उच्छेदवाद -आत्मा केवल इसलोकमें हो मिदानका भी वही सम्बन्ध है। द्वादशनिदानके नाम वनमान रहती है। ये हैं ;-अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, पड़ायतन, (३) दशमत -आत्मा इहलोक अथवा परलोकमें स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति, जरामरण, प्रकृतिरूपसे वर्तमान नहीं रहती। शोक, परिवेदना, दुःख, दौमनस्य, उपायास इत्यादि। हिन्दूधा और बौद्धधम के कर्मवादमें भी प्रभेद है। बुद्धदेव शब्द देखा। हिन्दूगण तलाके अमरत्व पर विश्वास करते हैं और मनुष्य पहले अविद्याच्छन्न अर्थात् अशान निद्राभिभूत इनका कमाद इसा विश्वासके ऊपर संस्थापित है। रहते हैं। थोड़ी चेतना लाभ करनेसे ही वे कितने ही आत्माके अमरत्व पर अविश्वासो बौद्धोंने ऐसा न मान कर संस्कारके वशीभूत हो जाते हैं-उस समय भी उनके कम वादका कांट छांट कर अपने मतानुसार कर लिया है। पूर्णचेतना नहीं होती। संस्कार के बाद विज्ञान या बौद्धधर्म में कर्म का इस प्रकार वर्णन किया है, "मनुष्य- चेतना होती है। चेतना होनेसे द्रष्यका नाम और रूप-- को मृत्यु होने से उसके भिन्न भिन्न खण्ड भी उसीके का ज्ञान होता है। नामरूपकी उपलब्धिके बाद षड़ाय- साथ विनष्ट हाते हैं। किन्तु उसके कम द्वारा विनष्ट तन अर्थात् बडिन्द्रियको, क्रिया आरम्भ होती है जिससे खण्डकी जगहमें नये खण्ड उपस्थित होते हैं तथा इन्हीं बाहरी वस्तुके साथ संस्पर्श होता है। संस्पर्शसे वेदना सब खण्डवि. द्वारा गठित अन्य एक जीव परलोकमै जन्म- या अनुभूति और अनुभतिसे तृष्णा अर्थात सुखप्राप्ति ग्रहण करता है। यपि यह जीव भिन्न खण्ड द्वारा तथा दुःखपरिहारकी इच्छा होती है। तृष्णासे कार्यको गठित है, वि.न्तु कम एक रहने के कारण यह जीव और चेष्टा या उपादान उत्पन्न होता है। चेटाका आरम्भ मृत मनुष्य दोनों ही एक है। सुतरां संसारमें जाव होनेमे एक अवस्थाकी उत्पत्ति होती है जो अच्छी या यद्यपि असंख्य जन्ममृत्युकं अधीन हैं, तो भी एक कम वुगे भी हो सकती है। इस अवस्थाका नाम है भव। सूत्र द्वारा है उसका एकत्व स्थिर रहता है।" इसके बाद ही जाति या नवजीवनको उत्पत्ति होती है। ऐसी चोति शान या युक्ति वहित-सी प्रतीत जिसकी उत्पति होती है, उसका विनाश अवश्यम्भावी होने पर भंः कुछ विशेष होता जाता नहीं है। कारण, है : सुतरां जोवनमें शोक, दुःश्व जरामरण प्रभृतिका बौद्धधर्म मानवज्ञानके अतीत और सदा सत्यके ऊपर अवश्य ही भोग करना होगा। जिसगे इस जरामरण प्रतिष्ठित है ऐसा बोद्धगण विश्वास करते हैं। दु.खादिसे निस्तार मिले. उस पथका आविष्कार करना "सर्वम् अनित्यम्" सभी अनित्य क्षणस्थायी हैं- ही बुद्धधर्मका मुख्य उद्देश्य है। यहां भी योगशास्त्र के साथ यह बौद्धधा का एक मूलसूत्र है। इस मूलसूत्र पर उक्त मतका उतना विरोध नहीं है। अविद्या हो सभी बहुतेरे आक्षेप करते हैं, --"यदि सभी अनित्य वा क्षण- अमङ्गलका निदान है। इसका विनाश करना दोनोंका स्थायी हैं, तो कम किस प्रकार जन्मजन्मान्तरमें स्थायो ही उद्देश्य है। किन्तु इसमें एक कठिन समस्या है। हांगा ?" सके उत्तर में कहा जा सकता है, कि समस्त योगशास्त्रकार दार्शनिक शाश्वतवादी-- अमृतत्व भौर पार्थिव अनत्य हैं। जिस कर्म द्वारा मानवजीवन