पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५३७

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बौद्धधर्म ५३१ ध्यानकी अवस्था पांच प्रकारको बतलाई गई है । उन्होंने बर्निगण। इनके सिवा मनुष्य, असुर, प्रेत और जीव- द्वितीय अवस्थाको दो भागोंमें बांटा है। लोक तथा नरक मिला कर कुल ग्यारह कामलोक हैं। ध्यानका विषय कहनेमें समाधिका विषय भी कहना रूपब्रह्मलोक सोलह भागोंमें विभक्त है । जिनने काम होता है। समाधिके नाना प्रकारके भेद देखने में आने को जीत कर देवत्व लाभ किया है, वे अपने अधिकाग- हैं। बौद्धशास्त्र में तीन प्रकारको समाधिके नाम ये हैं -- नुसार इस लोकमें याम कर सकते हैं। इन लोकोंमेंसे सवितर्क सविचार, अवितर्क विचारमात्र और अवितक १ला निम्नलोक ब्रह्मपारिसथ, २रा ब्रह्मपुरोहित, ३रा अविचार । अन्य तीन प्रकारकी समाधिका नाम शून्यता, महाब्रह्म, . ४था परित्ताभ, ५वां अप्रमाणाभ, ६ठा अनिमित्त (कारणहीन) और अप्पाणिहित ( अहित ) आभास्वर, ७वां परीत्तशुभ, ८वां अप्रमाणशुभ स्वां शुभ- या विशेष उद्देश्यविहीन है। कृत्स्न, १० वां वृहत्फल, ११वां असमन्व, १२वां अबृह, समाधिके दो सोपान हैं। निकृष्ट समाधिका नाम १३वां अतपम , १४वाँ सुदर्श, १५वा सुदर्शन और उपचारसमाधि और उत्कृष्ट समाधिका नाम अप्पना १६वां सर्वोच्च लोक अकनिष्ठ है। प्रथम ध्यानके पहले, ( अर्पणा ) समाधि है। महायानमतावलम्बी बौद्धगण दूसरे और तोमरे स्तरमें जो पारदशी हैं व प्रथमसे और भी अनेक प्रकारकी समाधि बतलाते हैं। प्रशा तृतीय लोकके अधिकारी होते हैं। द्वितीय ध्यानके पारमिताग्रन्थमें १०८ प्रकारकी समाधिका उल्लेख अधिकारो चतुर्थ षष्ठ लोके वासापयागी हैं । तृतीय मिलता है। ध्यानके अधिकारी मातये से नवे लोकमें, चतुर्थ ध्यानके पूर्वकथित चालीम प्रकारके कम्मत्थानके अलावा अधिकारी दशवेसे ग्यारहवे में और अनागामिगण और भी दो एकका उल्लेख देखा जाता है। आहारपटि- बारहवेंसे सोलहवें लोकमें वाम करनेके उपयुक्त हैं। पकुलासा (अर्थात् आहारप्रतिकूलसंशा या आहार्य रूपब्रह्मलोकके बाद अरूपब्रह्मलोक है। इसका पुनः द्रष्यमें अपवित्रताबोध), चतुर्धातुवत्थान अर्थात् चार महा भिन्न भिन्न स्तर निणीत हुआ है। भूतका निर्णयकरण इत्यादि। ____ जीवोंके रहने के लिए कुल इकतीम स्थान निर्दिष्ट भूसंस्थान और जीवश्रेणीभेद । हैं। सबसे निम्न स्थानका नाम नरक या निग्य है। आठ बौद्धशास्त्रके मतसे विश्वब्रह्माण्डमें वहुसंख्यक चक्र । प्रधान नरकका उल्लेख है, यथा मजाव, कालसूत्र, वाल हैं। प्रत्येक चक्रवालमें विभिन्न पृथयो, सूर्य, संघात, रौरव, महारोरव, तपन, प्रतापन और अवीचि । चन्द्र, स्वर्ग और नरक हैं। हम लोगोंको पृथ्वाके केन्द्र उक्त आठ नरकके सिवा और भी अनेक छोटे छोटे नरक स्थलमें मेरु अथवा सुमेरुपर्वत प्रतिष्ठित है। जिसके देखने में आते हैं। चारों ओर प्रधान प्रधान कुलाचल पर्वत और इन सब नरकके ऊपर इतरप्राणियोंका स्थान है। इसके पर्वतोंका अतिक्रम कर चार महाद्वोप अवस्थित है। ऊपर प्रेनलोक और उसके भी ऊपर असुर लोक है। उत्तरमें उत्तरकुरु, मेरु पर्वतके दक्षिणमें जम्बूद्वीप असुरोंमें राहु सर्व प्रधान है। नरक और इससे ऊपर (भारतवर्ष), पश्चिममें अपर-गोदाम और पूर्वमें पूर्व विदेह। उक्त तीन लोक अपायलोक कहलाता है। यही भोगका वनमान है। स्थान है। प्रत्येक गोलकमें तीन लोक या धातु है। सबसे इकतीस स्थानके अलावा और भी एक लोक है निम्न कामलोक, उसके ऊपर रूपलोक और सर्वोपरि जहां प्राणिगण अपने कर्मफलानुमार उच्च और नीचगति भरूपलोक है। पा कर रहते हैं। जिसने अति प्रश्चपद पाया , उसको सबसे निन्न लोकमें छः प्रकारके देवताका बास है- भो घोर अधोगति हो सकती है। केवल वुद्ध, प्रत्येक- १ चारों ओर पाल, २ तेतीस देवता, ३ यमगण, ४ बुद्ध और भह तोकी अधोगति महीं होती। तुषितगण, ५ निर्माणरतिगण ६ परिनिर्मित और वश * ललितविस्तर, अंगुत्तरनिकाय और व्युत्पनि देखो।