पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५४१

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बादधर्म ५३५ वलि या उपहार देना उचित है ।* यह उपदेश निःसंदेह उत्तर और दक्षिण प्रदेशीय बौधोंके मध्य धर्म नीति स्मृतिसे ग्रहण किया गया है। विषयमें कोई विशेष वैषम्य नहीं दिखाई पड़ता। हां, बौद्धधम में आत्माका अस्तित्व स्वीकार नहीं करने : उत्तराञ्चलके बौद्धोंमें सत् और सुनीति अधिकतर रूपसे, 'पर भी महात्मा बुद्धने अनेक समय आत्मा या विवेकका कार्य में परिणत हुई सी जान पड़ती है। यही कारण उल्लेख किया है। इससे जान पड़ता है, कि अज्ञातसारमें है, कि इनका धर्म मत दक्षिणाञ्चल बौद्धाको अपेक्षा हिंदूधर्म से बौद्धनोतिका कुछ अंश लिया गया है। समधिक विस्तृत हुआ है। और भी, मालूम होता है, कि अहिंसा, पितामाताको चाहे भारतवर्ष में हो अथवा अन्य देशमें, सभी जगह भरणपोषण तथा भिक्षादान आदि नीति भी प्राचीन धर्म- नोति दो भागों में विभक्त हो सकती हैं, १ला जिन सब सूत्रसे गृहीत हुई हैं। नियमोंका उलङ्घन करनसे शास्तिको व्यवस्था निर्दिष्ट है।। बौद्धधर्म ग्रन्धमें जहां कहीं धर्मनीतिक सम्बन्धमे उप और २। जिस अनुशासनका पालन करनेसे प्रशंसा, देश दिया गया है, प्रायः वहीं पर पद्यछन्दका व्यवहार हुआ आदर अथवा पुरष्कार मिलता है। प्रथम श्रेणीके है। समस्त अंश पद्यमे लिखित नहीं होने पर भी कुछ नियमोंका अवश्य ही प्रनिपालन करना चाहिए। क्योंकि अंश जो पद्य लिग्ये गए हैं, वे सर्वत्र ही देग्नेमें आने ऐसा नहीं होनेसे समाजबंधन शिथिल हो जायगा। हैं। ये सब उपदेश बहुत जगह बौद्धधर्म के मूलसूत्रसे। इनका नाम यम है और द्वितीय श्रेणीके अनुशासनका विभिन्न तथा कहीं कहीं विरुद्धमतप्रकाशक हैं। यह नाम नियम । नियम सभी समय मबोंके अवश्य प्रतिपाल्य देखनेसे प्रतीत होता है, कि केवल बौद्ध भिक्ष ओंके नहीं हैं , तव जो उनका पालन कर सकते हैं, वे जन- कर्तव्य और अकर्तव्यके निर्धारण के सिवा और कोई समाज में महत् तथा आदश समझे जाते हैं। भी धर्म नीति पहले वर्तमान न थी। धर्मविस्तारके। बौद्धधर्म नीतिके मध्य दश शिक्षावाद भी इसी प्रकार साथ ही साथ वह भी लिपिवद्ध हुई है। के हैं, भिक्ष सम्प्रदायको अवश्य ही इनका प्रतिपालन बौद्ध धर्म नीतिकी प्रकृत धारणा करने में कई एक करना चाहिए। जो गृही हैं उनके लिए प्रथम पांच ही बातें याद रखनी होगी। (१) भिक्ष और गृही दोनों प्रतिपाल्य हैं। इस दश शिक्षावाद द्वारा निम्न लिखित श्रेणीके लिए ही नीतिका उपरेश दिया गया है। अह त्-! कार्य निषिद्ध हुए हैं, गण कुछ परिमाणमें साधारण नीति के अतीत हैं । मुनिके (६) जीवनाश, ( २ ) चौर्य, .३) व्यभिचार, (४) किसी प्रकारको आसक्ति न रहनी चाहिए और न प्रोनि मिथ वादिता, ( ५ ) मद्यपान, (६) अनियमित समयमें अथवा अप्रीतिजनक कोई कार्य करना ही उचित है । जो आहार, (७) सांसारिक आमोद प्रमोदमें योगदान, (८) पुत्रकन्याका परित्याग कर सकते हैं, वे ज्ञानी कहलाते। अलङ्कार अथवा पिलाना व्यका व्यवहार, (६) बृहत् हैं। भिक्ष धर्म ग्रहणके लिए जो अपनी स्त्रीको छोड़ अथवा साजसजापूर्ण पालङ्कका व्यवहार और ( १०) सकते और जो किमी भी प्रकारसे स्त्री पुत्रका अर्थ ग्रहण। तस्वावधारण नहीं करते हैं उन्हें हो संसाग्में अत्यन्त प्रथम पांच मोंके लिए प्रयोज्य हैं , किन्तु इसमें सत्कार्य करनेकी प्रशसा और समादर मिलता है। फिर | भी कुछ विशेषता है। ब्रह्मचर. या इन्द्रिय-मयम अर्थात् अन्यान्य स्थानोंमें ऐसा भी देखा जाता है, कि स्त्री ही | सन्यासी और सन्यासिनोकं लिए सब प्रकारसे सर्वोत्कृष्ट बन्धु है और वही पृथिवीका सर्वश्रेष्ठ धन स्त्रीपुरुषस'सग का परिहार और गृहीके लिए पर पुरुष कहलाती है। बौद्धधर्म ग्रन्थमें ऐसा ही वैषम्य अकसर या परस्त्री गमन निषिद्ध है, इत्यादि। देखा जाता है। जो संसारका परित्याग कर श्रमण सम्प्रदायभुक्त हुए हैं, उनके लिए उक्त शिक्षावादके सिवा और अनेक

  • अङ्ग तरनिकाय रेय भाग ६८ पृ० ।

कठोर नियम विधिवद्ध हैं। इनके नैतिक जीवन तीन