पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५९४

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५८८ ब्रह्मग्राहिन् --ब्रह्मचर्य ब्रह्मवाहिन् (सं० त्रि०) पवित्र परम पदार्थ वा ब्रह्मार्थलाभ- ; है। पहले अहिंसा, उसके बाद सत्य इत्यादि रूपसे के उपयुक्त। । ब्रह्मचर्यको प्रतिष्ठा होती है। पाताल भाष्यमें ब्रह्मघातक (सं० पु० ) ब्राह्मण विप्र हन्ति इन-ण्वुल। लिखा है, "ब्रह्मचर्यमुपस्थनियमः, वीर्यधारणं वा ।" १ ब्रह्महत्याकारक । (त्रि०) २ व्यासोक्त परिभाषिक पाप- पातञ्जलदर्शनके भाष्यकारका मत इस प्रकार है:-यम भेदयुक्त । द्वादशी तिथि में पोईका माग खानेसे ब्रह्मघातक नामक योगाङ्गका साधन करना हो तो पहले अहिंसा- होता है, अर्थात् उसके समान पापभागी होता है। नुष्ठान, उसके बाद सत्य और अचौय, पश्चात् ब्रह्मचर्यका ब्रह्मघातिन् ( सं० वि० ) ब्रह्म हन् णिनि । ब्राह्मणहत्या- अनुष्ठान करना चाहिए। ब्रह्मचर्य शब्दका मूल अर्थ कारी, ब्राह्मणकी हत्या करनेवाला। शुक्र धारण है। शरीरमें यदि शुक्र धातु प्रतिष्ठित हो, ब्रह्मघातिनी ( सं० स्त्री० ) १ ब्राह्मणको मारनेवालो। २ विकृत, स्खलित वा विचलित न हुआ हो, अटल और रजस्वला होनेके दूसरे दिन स्त्रोकी संज्ञा। अचल हो, तो समस्त बुद्धि-इन्द्रिय और मनकी शक्ति ब्रह्मघोष ( स० पु० । १ वेदध्वनि। २ वेदपाठ। वृद्धि होती है। वित्तको प्रकाश-शक्ति बढ़ जाती है, ब्रह्मघ्न ( सं० त्रि. ) ब्रह्माणं ब्राह्मणं हन्ति हन-क । १ ब्रह्म- राग द्वेपादि अन्तर्हित और कामक्रोधादि क्षीण हो जाते हत्याकारक, ब्राह मणकी हत्या करनेवाला । (स्त्री०) हैं। अतएव शरीरस्थित शुक्रधातुको अविकृत, अस्ख- २ ब्रह्मधातिनी, ब्राह्मणको मारनेवाली । ३ गृहकन्या, लिन और अविचलित रखने के लिए काम-भावसे स्त्रियों- घीकुवांर । के अङ्ग प्रत्यङ्गादिके दर्शन और स्पर्शनका परित्याग कर ब्रह्मचक्र (सं० क्ली० ब्रह्मनिर्मितं चक्र । कार्यकारणा- देना चाहिए। क्रीड़ा, हास्य और परिहास, उनके रूप त्मक संसाररूप चक्र । जीवगण इस संसारचक्र लावण्यकी चिन्ता आदि भी वर्जनीय है। भालिड्न मर्वदा पीसे जाते हैं, इसीसे इसको ब्रह्मचक्र कहते हैं। और रेतःसंक निषिद्ध है। कुछ दिन इस प्रकार नियमा ब्रह्मचर्य ( सं० क्लो० ) ब्रह्मणे वेदार्थं चर्य आचरणीयं, चारी रहनेसे ब्रह्मचर्य ढूढ़ होता है। उस समय आत्मा- १ आश्रम विशेष, एक आश्रम । ब्रह्मचर्य, गाह स्थ, वान में और एक प्रकारको अन्त शक्ति ( जिसका नाम प्रस्थ और संन्यास ये ही चार आश्रम हैं। आश्रम धर्मो में . ब्रह्मतेज है ) का प्रादुर्भाव होता है। तब उसको मुखा- ब्रह्मचर्याश्रम ही श्रेष्ठ है । २ अपाङ्गमैथुन निवृत्ति, मैथुनस ज्यातिः अपूर्व और मानसिक तेज भप्रतिहत हो जाता है। बचनेकी साधना। ____ब्रह्मचर्या प्रतिष्ठायां वीयालाभः” (पात सू० ३८३) "स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षण गुधभापणाम् । ब्रह्मचर्यको प्रतिष्ठा अर्थात् वीर्य-निरोध करनेसे सुसिद्ध संकल्पाऽध्यवसायश्च क्रियानिवृत्तिरेव च। होने पर वीर्य अर्थात् निरतिशय सामर्थ्य उत्पन्न होतो एतन्मैथुनमष्टाङ्ग प्रवदति मनीपिगाः ।।" है। वीय वा चरम धातुका कणामात्र भी यदि विकृत ( भारविटाका मलि, १०) वा विचलित न हो, भ्रमसे भी यदि कामोदय न हो, स्मरण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गृह्यभाषण, संकल्प, स्वप्नमें भी यदि चित्त चाचल्य न घटे, तो चित्तमें ऐसी अध्यवसाय और क्रियानिवृत्ति ये आठ प्रकार मैथुन हैं। एक अद्भुत शक्तिका सञ्चार होता है, जिसके द्वारा चित्त यह अपाङ्ग वृति ही ब्रह्मचर्य है। य.. स्त्री और पुरुष सर्वत्र अव्याहत वा विनिविष्ट रहने के योग्य बन जाता है। दोनों के लिए ही साधरणतः जानने योग्य है। फिर उसे जो भो उपदेश दिया जायगा, वह सफल "मृते भतार साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्य व्यस्थिता। होगा। ( पातजलद.) म्वर्ग गच्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिगाः ।" (मनु ५१३०) कलिमें ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ निषिद्ध है। ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता अकृतपुरुत्रान्तरामैथुना' ( कुल्लुक ) "ब्रह्मचर्याश्रमो नास्ति वानप्रस्थोऽपि न प्रिये । ३ यमभेद । पातञ्जलदर्शनमें लिखा है - अहिंसा, गाई त्यो भैक्षुकश्चैव आश्रमौ द्वौ कसो युगे॥" सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका नाम यम ( महानिर्वाणतन्त्र)