पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६८१

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भक्ष्यालाबु-भग ६७५ और कृष्णजन्मखण्डके '८४वें अध्याय में सविस्तार भगके शुभाशुभ लक्षणादि सामुद्रिकमें इस प्रकार लिखा है, विस्तार हो जानेके भयसे यह कुल नहीं लिखा गया। कच्छप-पृष्ठके जैसा विस्तृत और हस्ती-स्कन्धके भलालाबु ( स० स्त्रो० ) भक्षया भक्षार्हा अलाधुः । वड़ा जैसा उन्नत भग ही स्त्रियोंके लिये मङ्गलदायक है। भगका वाम भाग उन्नत होनेसे कन्या और दक्षिण भाग भखना ( हिं० कि० ) १ भोजन करना, खाना। २ निग उन्नत होनेसे पुत्र जन्म लेता है। जो भग ढ़, अवयव- लना। में विस्तृत, परिमाणमें वृहत् और उन्नत होता है, जिसका भस्त्री ( हिं० स्त्री० ) दलदलोंमें होनेवाली एक ऊपरी भाग मूषिक गात्रवत् विरल लोमयुक्त, मध्यभाग- प्रकारकी घास । यह छप्पर छाने और रट्टियां में अप्रकाशित, दोनों पार्श्वमें मिलित प्राय, गठन और बनानेके काममें आती है। नैनीतालमें इस प्रकारको वर्ण में कमलदलके सदृश, क्रमशः अधोदिक सूक्ष्म और घास बहुत पाई जाती है। इसके फलमें नारंगीको सो सून्दर तथा जो आकृतिमें पीपलके पत्तेके जैसा तिकोना महक होती है। पकने पर यह घास लाल रंगको हो होता है, वही भग मङ्गलावह और प्रशस्त है। जो भग जाती है। इसे चौपाए बड़े चावसे खाते हैं। इसका हरिणके खुरकी तरह, अल्पायत चूल्हेके भीतरी भागके दूसरा नाम 'खवी' भी है। जैसा गह्वरविशिष्ट, लोमपूर्ण और जो मध्यभागमें प्रका. भग ( स० पु. क्लो० ) भज्यतेऽनेनास्मिन् वेति एतदा- शित तथा अनावृतप्राय है वह भग अशुद्धदायक माना श्रित्यैव कन्दप सेवते इति भावः । भज सेवायां ( सि गया है। इस प्रकार योनिविशिष्ट स्त्रीका गर्भ अकसर संज्ञायां घः प्रायेण । पा २।३।११८ ) इति घः। १ स्त्री चिह्न, : नष्ट हुआ करता है। योनि । पर्याय-वराङ्ग उपदस्थ, स्मरमन्दिर, रतिगृह, जन्म. (पु० ) भज्यते इति घ । २ रवि, सूर्य । ३ द्वादशा- वत्म, अधर, अवाच्यदेश, प्रकृति, अपथ, स्मरकूप, अप्रदेश दित्य भेद, बारह आदित्यों से एक। ४ ऐश्वर्यादि षटक, पुष्पी, संसारमार्ग, गुह्य, स्मरागार, म्मरध्वज, छः प्रकारकी विभूतियां जिन्हें सम्यक् ऐश्वर्य, रत्यङ्ग, रतिकुहर, कलत्र, अधः। (शब्दरत्नावली) सम्यक वीर्य, सम्यक् वश, सम्यश्रिय और सम्यक- ____ भगशब्दसे लिङ्ग और योनि दोनोंका हो बोध होता , ज्ञान कहते हैं। ५ भोगास्पदत्व । ६ स्थूलमण्डला- भिमानी । ( रामायण ३।१२।१८) ७ इच्छा । ८ भजन्त्यनेनेति भगा मेहनं, भजन्त्यस्मिन्निति भगं यानिः। : माहात्म्य । ६ यत्न । १० धर्मं । ११ मोक्ष । १२ (भावप्र. मध्यस्व०)! सौभाग्य । १३ कान्ति। १४ चन्द्र । १५ ज्योतिषोक्तयोनि रतिमञ्जरीमें विस्तीर्ण और गम्भीर इन दो प्रकारके नक्षत्रदैवत पूर्व फल्गुनीनक्षत्र । १६ धन । १७ पद। भगोंका उल्लेख है-- 1८ गुह्यदेश, गुदा । १६ एक देवताका नाम। पुराणानु- "विस्तीर्णच गभीरश्च द्विविधं भगलक्षणम् ।" (रतिम०) सार दक्षके यज्ञमें वीरभक्षने इनकी आँख फोड़ दी थी। कूर्मपृष्ठ, गजस्कन्ध, पद्मगन्ध अथच सुकोमल, अको-: (त्रि०) २० भजनीय । मल, और सुविस्तीण ये पांच प्रकारके भग उसम हैं। . * "शुभः कमठपृष्ठाभो गजस्कन्धोपमो भगः। "कूर्मपृष्ट गजस्कन्धं पद्मगन्धं मुकोमलम् । वामोन्नतश्चेत् कन्याजः पुत्रजो दक्षियोन्नतः ॥ अकोमलं मुविस्तीर्ण पञ्चैते च भगोत्रामाः ॥” (रतिम.) आखुरामा गूढमणिः मुश्लिष्टः संहतः पृथुः । शोतल, निम्न, अत्युष्ण और गोजिह्वा सदश भग तुङ्गः कमलपर्णाभः शुभोऽश्वत्थदलाकृतिः ॥ निन्दित बतलाया गया है। कुरङ्गखुररूपो यश्चुल्लिकोदरसन्निभः । "शीतनं निम्नमत्युष्ण गोजिह्वासदृशं परम् । रोमशो विवृतास्यश्च गर्भनाशोऽतिदुर्भगः ॥" इत्युक्तं कामशाश भगदोषचतुष्टयम् ॥ (रतिम० ) (शिवोक्त सामुद्रिक)