पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/७२४

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७१६ भद्रबाहुस्वामी शून्य वाक्यालापसे शानियों की उपेक्षा करेंगे और १६ समय उपस्थित जान उन्होंने एक पर्वत शिखर पर चढ़ द्वादश वार्षिकी अनावृष्टिके कारण वसुन्धरा शस्य- कर अन्तिम-ध्यानमें निमग्न होनेकी इच्छा प्रकट की। उस शून्य हो जायगां। स्थानमें भी दुर्भिक्षका पूर्ण प्रकोप देख कर उन्होंने ___ इसके कुछ दिन बाद उन्होंने शिष्यों को विदा कर प्रियशिष्य विशाख मुनिको संघ सहित चोलमण्डल में दिया और एकाको भ्रमण करते हुए एक वालकका आर्त · चले जानेके लिये आदेश दिया। उनकी अनुमतिके अनु- नाद सुना। पुकारने पर कोई उत्तर नहीं मिला, इसमे मार एकमात्र चन्द्रगुप्त हो उनके साथ रहे । उन्हों ने समझ लिया कि अब द्वादशवार्षिकी अनावृष्टिका मूत्रपात गुरुको मृत्युके बाद उनकी अन्येष्टि-क्रिया सम्पन्न कर, हो गया * । राजाचन्द गुमने इस दैवप्रकोपकी शान्तिके उनके पादपद्मकी पूजामें निरत रहे*। लिए विविध अनुष्ठान किये । किंतु किसी प्रकार भी शांति भद्रभोमा ( स० स्त्री० ) पुराणानुसार कश्यपको एक न हुई ; यह देख वे दीक्षा ग्रहण कर वानप्रस्थाचारी कन्याका नाम जो दक्षकी कन्या क्रोधाके गर्भसे उत्पन्न हो कर भद्रबाहुखामीके सहचर हो गये। हुई थी। भद्रबाहुने ज्ञानदृष्टिसे देखा कि, उस महामारोके समयमें बिन्ध्यापर्वतसे ले कर नोलगिरि पय न्त समग्र * पाटलिपुत्रके राजा ये चन्द्रगुप्त कौनसे थे ? राजावली- भारतमें किसी प्रकार शस्यादि न होंगे। अनाहारमें लोग कथा नामक कनाड़ी ग्रन्थसे इस ऐतिहासिक सत्यका अंकुर उत्पन्न प्राण त्याग करेंगे और धर्म भी कलापित होगा। होता है। यदि भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तका आग्ब्यान रूपक न हो, तब वे अपने १२ हजार शिष्यों और अन्यान्य लोगों के और श्रवगावलगाड़ाके निर्जन पर्वतशिखरस्थ शिलालेखके मौलि- साथ दक्षिणापथको चल दिये। माग मे अपना मृत्यु कत्वमें सन्देह हा, ता इस विचित्र आख्यान पर विचार करनेकी आवश्यकता ही न था। जब चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्रके सिंहासन पर

  • राजावली-वर्णित चन्द्रगुप्तका स्वप्न सत्य न होने पर भी द्वादश उपविष्ठ थे, उस समय रैनधर्म लुम हानेका अवसर आ पहुंचा था

वार्षिकी अनावृष्टिकी बात शिलालेखोंसे प्रमाणित हो जाती है। इस बातको सभी स्वीकार करते हैं। सम्भवतः उसी समय जैनों- दाक्षिणात्यके श्रवणवेलगाड़ाके निकटवर्ती इन्द्र गिरि-शिग्यरस्थ के शेषतम ६ ४ श्रुतकेवली भद्र बहु स्वामीका आविर्भाव हुआ प्राचीन कनाड़ी अक्षरोंमें संस्कृत भाषामें लिखित शिलालेखके था। कारण, उसके बाद फिर काई उस पद पर अधिष्टित नहीं पढ़नेसे मान्नूम होता है कि, गौतमगणाधरके शिप्य भद्रवाहुस्वामीको हुए। इधर देखते हैं कि चन्द्रगुप्तके बाद बौद्धधर्मका पुनर्विस्तार उज्जयिनीमें ही ज्ञानयोगसे इस द्वादशवर्षव्यापी अकानका परिज्ञान हुआ था। भद्रबाहुस्वामीके गुणकीर्तनक हो गया था । जनसाधारयाको इस भावी विपत्तिका हाल सुना कर __ अवश्य ही ऐसे प्रबलप्रताप नरपतिके जैनपादाश्रय ग्रहणसे गौर- वे अनेक मनुष्यों के साथ दाक्षिणात्यका चल दिये । नाना ग्राम वान्वित हुए होंगे, इसमें सन्देह नहीं। यही कारण है. कि ओर जनपदोंको अतिक्रम करते हुए वे कोटव-पर्वत पर पहुंचे और उन्होंने तत्सामयिक राजा चन्द्रगुप्तक. भद्रबाहुके अनुचर शिष्य- अपनी मृत्यु निकटवर्ती जान वहीं रह गये। यहां पर अन्तिम रूपमै ग्रहण किया है। राजा चन्द्रगुप्त ३७२ ईमें विद्यमान थे । समाधिमें निमग्न होनेसे पहले उन्होंने सबको विदा कर सिर्फ एक प्रियदर्शी और चन्द्रगुप्त देखा। शिष्यको अपने पास रखा। उसके बाद संन्यास व्रताचरण पूर्वक इधर भद्रबाहु वीर नि० सं० १७०में ७६ वर्षकी अवस्थामें उन्होंने सप्तशर ऋषिके अभीष्ट पदको प्रास किया था । मोक्ष गये हैं। ऐतिहासिक आलोचनासे ग्वष्टपूर्व सन् ५२७ को Ind Ant vol 111, 12, 153. वीर निर्वाण-काल स्थिर हुआ है। अतः ५२७-१७०=३५७ इस सुप्राचीन शिलालिपिमें लिखी हुई भद्रवाहुकी दक्षिण- खुष्ट पूर्वमें, मतान्तरसे श्रुतकेवलीगण वीरनिर्वाणके बाद १६२ यात्राका समर्थन राजावलीमें भी किया गया है । विशाखका । वर्ष तक थे, तो शेष श्रु तकेवली भद्रबाहु अवश्य ही ३६५ खुष्ट- चोलमण्डलमें गमन और चन्द्रगुप्तके गुरुके साथ अवस्थानका पूर्वाव्द तक विद्यमान थे , इससे प्रमाणित होता है कि दोनों आभास भी नितान्त अप्रासङ्गिक नहीं जाना पड़ता। एक समयमें ही भारतभूमिमें विद्यमान थे।