पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१२०

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अग्निम-अग्निमान्द्य घर्षण हारा अग्न्यु त्पादन कर, दो अरणियोंको घिस- | अग्निमन्थ (स० पु०) अग्निमन्थ-करणे घञ्। १ गनि- कर आग उत्पन्न करनेवाला। यारी वृक्ष। गनियारीकी लकड़ी रगड़नेसे जल्द आग पूर्व कालमें साग्निक ब्राह्मण कहीं भी जानेसे निकलती है। २ अग्निसाधन-मन्त्र । अपने साथ अरणि काष्ठ ले जाते थे। अरणिका प्रयोजन अग्निमन्यन (सं० क्ली०) अरणिघर्षण हारा अग्न्य त्पादन । पड़नेसे वही दोनो लकड़ियां एकत्र बलपूर्वक घिसते, अग्निमान्द्य (सं० क्लो०) ६-तत्। अजीर्ण रोग, क्षुधा- जिससे अग्नि उत्पन्न होती थी। वह बिना अरणिके मान्द्य । परिपाक शक्तिका ह्रास । बदहजमी। भूखको कहीं भी जात न थे। इससे स्पष्ट समझा जा सकता कमी। (Dyspepsia) है, कि उस समयमें अग्न्युत्पादनके लिये कोई सहज अग्निमान्य रोग सहज नहीं, इससे अनेक प्रकारके उपाय न था। आज भी वनको असभ्य जातियां काष्ठ उपसर्ग हो जाते हैं। पहले आहारमें अरुचि, कोष्ठबद्ध, घर्षण द्वारा अग्न्युत्पादन करती हैं। पहले वह कहीं पुनः-पुनः अल्प-अल्प मल निकलना, उदरामान, कड़ी लकड़ीके दो टुकड़े एकत्र घिसती हैं । शरीर दुर्बल हो जाना, बीच-बीच उगारका उठना, उनमें गर्मी आ जानसे उनके बीच में एक छोटासा जी मिचलाना, किसीको अम्ल और पित्तमिश्रित वमन फटा कपड़ा रख फिर घिसने लगती हैं। थोड़ी ही होना, अन्तःकरणमें स्फूर्ति न रहना, चित्त मलिन और देरमें वह फटा कपड़ा जल उठता है। विरस होना, छाती जलना, आहारके बाद उदरमें भार वत्सर-वत्सर जिस दावानलसे वन जलते, उसको मालूम पड़ना आदि लक्षण देख पड़ते हैं। इन सब उत्पत्ति भी इसी तरहसे होती है। वृक्षको शुष्क लक्षणोंके बाद क्रमसे निद्राभाव, दुःस्वप्न, काल्पनिक शाखा अन्य शाखाके ऊपर पड़ ग्रीष्मकालके प्रबल वायु. दुश्चिन्ता, हृत्स्यन्द प्रभृति उपसर्ग आ धमकते हैं। इसी वेगसे रगड़ा करती है। उसी घर्षणसे अग्नि उत्पन्न प्रकारसे शरीर क्लिष्ट और दुर्बल हो जानेपर जो होती है। एक बार आग लगनेसे पहले वृक्षको शाखा, यथार्थ उपसर्ग नहीं हुए, रोगी मन ही मन उन रोगों- इसके बाद वृक्ष और अन्तमें धीरे-धीरे समस्त वन धाँय को भी सृष्टि कर लेता है। दूसरे किसी व्यक्ति- धाँय जला करता है। सुनने में आता है कि, पर्वतके को व्याधिका हाल सुननेसे, अजीर्णरोगी मन ही गनियारी प्रभृति कई वृक्षमें शीघ्र ही अग्निको उत्पत्ति मन विश्वास करता, कि उसको भो वही व्याधि होती है। ऋषि शमिवृक्षके साथ जात-अश्वत्थ-काष्ठको लग गई है। अरणि बनाते थे। मथानीसे हम जैसे दही मथते हैं, कारणतत्त्व-प्रत्यह गुरुपाक द्रव्यका भोजन, शारी- ऋषि वैसे ही अरणिमन्थन द्वारा अग्नि उत्पन्न रिक परिश्रमका अभाव, अतिशय मानसिक चिन्ता, करते थे। तम्बाकू, अफीम, गांजा, मद्य प्रभृति मादक द्रव्यका पूर्व कालापेक्षा अब अग्निमन्थन अर्थात् अग्नुत्पा- सेवन, दुश्चिन्ता और मनस्ताप आदि अग्निमान्द्य दन करनेके अनेक सहज उपाय आविष्कृत हुए हैं। रोगके प्रधान कारण हैं। इन्हें छोड़ यकृतोग, ज्वर, चकमककी बात सभीको ज्ञात है। बेद रगड़कर भी हृद्रोग प्रभृति कोई दूसरी पीड़ा होते भी अजीर्ण रोग सहजमें अग्नि बनाई जाती है। चीन और सिङ्गापुर आ लगता है। अञ्चलका बेद (जिससे कुरसी और मोढ़े बनते हैं) दो चिकित्सा-पहले पौड़ाका मूलकारण दूरीभूत भागमें चौरकर धूपमें उत्तम रीतिसे सुखाये। इसके करना आवश्यक है। जो सर्वदा एक ही स्थानमें निस्तब्ध बाद बेदके चौर हुए छोर एकत्र रगड़नेसे शीघ्र अग्नि बैठे रहते और कुछ भी दैहिक परिश्रम नहीं करते, उत्पन्न होती है। विलायती दियासलाईके मुंहमें तो, उन्हें कुछ-कुछ व्यायाम करना उचित है। भले आद- घिसनेको गर्मीसे आग निकलती है। इसके उपादान और मियोंके पक्षमें प्रत्यह मुहर भांजना और सेवेरे और बनानेकौ प्रणाली दियासलाई शब्दमें देखो। सन्ध्याको निर्मल वायुमें भ्रमण इन दोनो नियमोंके