पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१५६

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नगर १५० अक्लेश्वर नगर-अङ्ग और नगर विद्यमान हैं। अक्ल खर इसका प्रधान | कुहनी, कुहनीके नोचे प्रकोष्ठ मणिबन्ध, हस्ततल, है, जिसको लोकसंख्या दश हजारसे हस्तहय, हाथको दश अङ्गुलि और नख है। चतुर्थाङ्ग अधिक होगी। वार्षिक आय कोई सवा पांच लाख वक्षःस्थल है। वक्षका उपाङ्ग स्तनद्दय, जो स्त्री-पुरुष रुपया है। पानी खूब मिलता है। पूर्वमें एक भेदसे विभिन्न है। हृदय कमलके फूलको तरह अधो- ऊंचा टोला है, जहांसे भूमि नर्मदाको ओर ढालू मुख रहता है। वह जाग्रत् अवस्थामें विकसित और होते चली गई है। वर्षा ऋतुमें कितने ही ग्राम निद्रितावस्थामें सङ्कुचित हो जाता है। कक्षद्वय कक्ष- पानौसे डूब जाते हैं। नर्मदाके उत्तर भूमि बहुत ही का सन्धिद्दय और वझणय भी इसी चतुर्थाङ्ग में है। उपजाऊ है। कोम और नर्मदाके बीच केवल गेहूं उदर पञ्चमाङ्ग है। षष्ठाङ्ग पार्शदय ;-पृष्ठवंश और और ज्वार उत्पन्न होती, जिसको गहरी दृष्टिको समस्तपृष्ठ सप्तमाङ्ग है। हृदयके नीचे वाम-भागमें आवश्यकता रहती है। फेफड़ा और दक्षिण-भागमें यकृत् रहता है। यतत् अङले खर नगर-बम्बई प्रान्तके भड़ोंच जिलेका प्रधान ही पित्तका स्थान है, जो रक्तसे उत्पन्न होता है। नगर। यह भड़ोंच नगरसे साढ़े तीन और नर्मदाके हृदयके नीचे दक्षिण-भागमें लोम है। यही वाम तटसे डेढ़ कोस दूर है। यहां रेल और सड़क जलवाहिशिराका मूल और तृष्णानिवारक है। दोनो बनी हैं। रूई ही प्रधान व्यवसाय है, जिसको यह क्लोम तिलक, वात और रक्तसे उत्पन्न होता साफ करनेके कुछ पुतलीघर भी हैं। राजपीपलेके है। वायुयुक्त रक्तसे कालीयक निकलता है। मैद जङ्गलका बांस भी खूब बिकता और साबुन और और शोणितके सारसे वृक्कयुगलको उत्पत्ति है। पत्थरको चक्कियोंका खासा व्यवसाय होता है। कहते हैं, कि वृक्कयुगल जठरस्थ मेदको पुष्टिकर है। नगरमें सब-जजको अदालत, हस्पताल, पुस्तकालय, पुरुषका अन्त्र साढ़े तीन व्याम और स्त्रीका तीन स्कूल आदि प्रतिष्ठित हैं। पहले यहां कागज़ भी व्याम रहता है। इसके बाद उण्डूक, कटि, त्रिक,वस्ति, बनता था, किन्तु अब यह काम बन्द हो गया। और ऊरुयुगलका सन्धिद्दय है। इसके बाद कस्तु- अङ्ग-चिह्रयुक्त करणमें अदन्त चुरादि उभ-प० सकर्मक । यह शुक्र, मूत्र और स्त्रीके गभी- सेट् धातु। अङ्गयति, अङ्ग्यते। अङ्गापयति, अङ्गा धारका साधक है। इसके बाद शङ्खनाभिके आकार- वाली स्त्रीको योनि है। इसके तीन आवर्त हैं। गर्भशय्या अङ्ग (सं० क्लो०) अङ्ग-अच् । १ शरीर। २ मन । ३ तौयावर्तमें स्थित है। कफ, रक्त, मांस और मैदसे अंश। ४ अवयव। ५.जन्मादिका लग्न । ६ अङ्गदेश । कोषद्दयको उत्पत्ति है। यह पुरुषको वीर्यवाहि- ७अप्रधान । ८ उपाय। शिराका आधार है। गुह्यका परिमाण चार अङ्ग लि है। सुश्रुत वैद्यकग्रन्थमें अङ्ग और उपाङ्गके विषय पर यह शङ्खावत तुल्य तीन बलिविशिष्ट है। पहले प्रवाहिनी लिखा है-मस्तक प्रधान अङ्ग है। उसका उपाङ्ग नाड़ी है, इसका परिमाण डेढ अङ्गुलि है। इसके बाद कुन्तल है। उसके अन्तर्गत जटा, ललाट, भ्रूयुगल, उत्सज्जनौ है, इसका भो परिमाण डेढ़ ही अङ्ग लि नेत्रदय, आंखके दो तारा, कृष्णवर्ण अक्षिगोलक, है। इसके बाद सञ्चरणी है, इसका परिमाण केवल एक दृष्टिद्दय, खेतभाग, वम हय, बिरनो, पलक, अपाङ्ग, अङ्गुलि है। मल निकलने के लिये इस पथको सृष्टि हुई शङ्कद्दय, कर्ण, कर्णकुहर, कानको लौर, कपोल, है। इसके बाद नितम्ब है। नितम्बके नीचे सक्थिनी नासिका, ओष्ठ, मृक्कण, मुख, तालु, हनु, दन्त, मसकुर अष्टमाङ्ग है। सक्थिनीका उपाङ्ग-जानु, पिञ्जिका, (दन्तवेष्ट), जिह्वा, चिबुक, और गलदेश है। द्वितीय जङ्घा, शुल्क, पदद्दय, पदको अङ्गुलि तथा नख है। अङ्ग ग्रीवा और तौय बाहुयुगल है। बाहुका आजकल युरोपीय पण्डितोंने देहको क्रियाके उपाङ्ग बाहुके ऊपर स्कन्ध, नौचे प्रगण्ड, उसके नीचे सम्बन्धमें जो निश्चित किया, उसके साथ तुलना रादिका मूल पयति। 1