पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१७३

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अङ्गारक -अङ्गारपर्ण समान है। पुराने अतीसार रोगमें मलसे सड़ी सुलगानेके लिये यह कोयला खरीद लेते हैं। जहां बदबू निकलने पर कोयला महौषध है। ज्वर लकड़ीका सुभीता नहीं लगता, वहां इतर मनुष्य तथा हैजे में हाथ-पैर ठण्डे और नाडी क्षीण होने बांस जलाकर कोयला बनाते हैं। टिकिया तथा पर, अङ्गारके सेवनसे शरीर गर्म और नाड़ी सबल हो गुलके लिये भी कोयला खूब बिकता है। शालपत्र, जाती है। पुराने कास रोगमें कफ न निकलने, पलाशपत्र और सड़े हुए पत्तोंसे भी अच्छा टिकिया कलेजेमें जलन होने और पेट फल जानेपर अङ्गार तय्यार होता है। इनके अभावमें लकड़ीके कोयलेसे या अङ्गारका अर्क देनेसे बहुत उपकार होता है। टिकिया बनाई जाती है। अरहर, धुनची और सामया विष खाने पर प्राणसंशय होने में कई जगह बैंगनको लकड़ीके कोयलेसे बारूद तय्यार होती अङ्गारके सेवनसे सुफल हुआ है। है। तम्बाकू पौनेमें टिकिया अधिक काम आती अङ्गारक (सं०पु०) अङ्गार-कन् स्वार्थे । १ मङ्गलग्रह। हैं। धोबी कपड़ोंपर इस्त्री करनेके लिये गुलको (पु०-क्लो०) २ अङ्गार । (क्लो०) ३ एक प्रकारका तेल । व्यवहार करते हैं। ४ भृङ्गराज। ५ कुरण्टक, पियाबासा, कटसरैया। अङ्गारकुष्ठक (सं०पु०) अङ्गार-कुष्ठ-कन्। हितावली मङ्गल देखो। नामक एक प्रकारको ओषधि । अङ्गारक-तैल-पुराने ज्वरमें यह तेल मलनेसे लाभ अङ्गारधानिक (सं.पु०) अङ्गार-धा-ल्युट्-कन् स्वार्थे । होता है। तिलका तेल ४ सेर, कांजी १६ सेर; अंगीठी, बोरसी, अङ्गार रखनेका आधार. आग कल्कद्रव्य, हल्दी, दारुहल्दी, मूर्वामूल, लाक्षा, जलानेका बरतन । (स्त्री०) अङ्गारधानिका । मञ्जिष्ठा, इन्द्रवारुणीका मूल, बृहतो, सेंधा नमक, कूड़, | अङ्गारधानी (सं० स्त्री०) अङ्गाराणि धीयन्ते अस्याम् । रास्ना, जटामांसी, शतमलो साढ़े छः छः तोले लेना धा-ल्युट, अधिकरणे ; स्त्रीत्वात् ङीप्। बोरसी, चाहिये। पहले तेलको मार ले। तेल मारनेकी प्रक्रिया मूर्छा शब्दमें देखो। इसके बाद यह तेल कांजीके साथ पकाये। अङ्गारपरिपाचित (सं० क्लो०) अङ्गार-परि-पच्-णिच्- अन्तमें कलक द्रव्यसे सिद्धकर पीछे जब तेल तय्यार क्त ; ज्वलदङ्गारण पाचितः। जलती हुई आगमें दग्ध हो जाये, तब गन्धद्रव्य डाल छान ले। किया हुआ मांस, कबाब । गन्धद्रव्य और तेलपाक देखो। अङ्गारपर्ण (सं० पु०) 'अङ्गारवगास्वरं दुःस्पर्शञ्च पर्ण वाहनं अङ्गारकमणि (सं० पु०) अङ्गारकस्य प्रियः मणिः । रथो यस्य सोऽङ्गारपर्ण:।' ( नौलकण्ठ) जलती हुई आगके शाक-तत् । प्रबाल, मंगा। प्रबालका रंग लाल होता, समान दीप्तिमान् और दुःस्पर्श जिसका पर्ण अर्थात् इसलिये यह मङ्गलग्रहको प्रिय है। मङ्गलके प्रीति वाहन हो। इनका अपर नाम चित्ररथ था। साधनको प्रबाल उत्सर्ग करनेको व्यवस्था है जिस वनमें वास करते, वह भी अङ्गारपर्ण कहाता "माणिक्यं विगुणे सूर्य वय्ये शशलाञ्छने। था। वन गङ्गा नदीके कूलमें अवस्थित प्रबालं भूमिपुवे च पद्मरागं शशाजे ॥" था। चित्ररथको प्रधान महिषी कुम्भौनसी थीं। अङ्गारकारिन् (सं० त्रि०) अङ्गारं करोति, क-णिनि । गन्धर्वराज सन्ध्याको रमणीगण साथ ले गङ्गा बेचनेके लिये लकड़ी जलाकर कोयला तय्यार करने नदीमें जलक्रीड़ा करते। एक दिन सायंकाल- वाला। कोयला बेचनेवाला। (स्त्री०) अङ्गारकारिणी। को पाण्डव कुन्तौके साथ उसी राहसे जा रहे थे, हिन्दुस्थानमें जङ्गली प्रान्तके लोग जङ्गलसे बड़े उनके दर्शनसे चित्ररथ क्रुद्द हो उनको तिरस्कार बड़े वृक्ष कट जानेपर उनकी जड़ें खोदकर जला करने लगे। अर्जुन यह भर्त्सना वाक्य सह न डालते हैं। पीछे कोयला बीस-पच्चीस कोस तक सके और उन्होंने आग्नेय अस्त्रको त्याग किया। किन्तु बेचनेको भेजते हैं। सुनार तथा लुहार अपनी भट्ठी कुम्भीनसी पाण्डवोंके शरणापन्न हुई, इसलिये अर्जुनने अंगीठौ। यह